स्पेशल डेस्क
कोशी की आस@पटना
दिल्ली-उत्तर प्रदेश सीमा पर लाखों प्रवासी मजदूर फंसे हैं, जो कई दिनों से भूखे हैं तथा किसी भी हालत में अपने घर जाना चाहते हैं। इन लोगों का कहना है कि दिल्ली में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। कोई हमारा सुध लेने को तैयार नहीं है, जबकि दिल्ली की केजरीवाल सरकार रोज अलग-अलग दावे कर रही है। पीड़ित लोगों का कहना है कि वह जहाँ काम कर रहे थे, वहाँ काम बंद हो गया है। जो लोग दिहाड़ी मजदूरी कर रहे थे, लाॅक-डाउन के कारण उन्हें प्रशासन बाहर निकलने नहीं दे रही है। अतः उन्हें भी काम मिलना बंद हो गया। अब भूख से बिलबिलाते इन लोगों के लिए पलायन के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा है।
दिल्ली की केजरीवाल सरकार इन प्रवासी मजदूरों को दो वक्त का रोटी मुहैया कराने में बुरी तरह विफल साबित हो रही है। अब जबकि यह समस्या राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर ट्रेंड कर रही है तो सरकारों की आंख खुली और केन्द्र सरकार ने राज्यों को एडवाइजरी जारी कर इसे गंभीरता से लेने को कहा है। उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा तत्परता से इस दिशा में कदम उठाने की घोषणा के बाद दिल्ली की सरकार भी जागी है और सहयोग करने की बात कर रही है।
जिस तरह से प्रवासी मजदूर पैदल, साईकिल से, दूध के टैंकर में बैठ कर दिल्ली से पलायन करने को मजबूर हैं, उससे उसके विकट हालात को सहज ही समझा जा सकता है। यही हालत कमोबेश अन्य शहरों में रहने वाले दिहाड़ी प्रवासी मजदूरों की भी है। आखिर यह किसकी जिम्मेदारी है? क्या सरकारें अपनी संवेदनशीलता खो रही है? या सबकुछ वोट बैंक को देख कर दिखावे के लिए किया जाता है। क्या जनसरोकार के फैसले सिर्फ दबाव समूहों को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं। जिसके मुंह में आवाज नहीं है या विरोध नहीं कर सकता, उसके प्रति सरकारों की कोई जिम्मेदारी नहीं है?
एक परिपक्व लोकतांत्रिक देश को यह कतई शोभा नहीं देता। शासन को प्रत्येक व्यक्ति के जान की कीमत को समझते हुए आवश्यक कदम उठाना चाहिए, चाहे वह दीनहीन गूंगा ही क्यों न हो। तभी हम महान प्रजातांत्रिक देश होने का दंभ भर सकते हैं।
उपरोक्त लेख कोशी की आस टीम को भारत सरकार के रेल मंत्रालय में कार्यरत प्रतापगंज, सुपौल के “विजेंद्र जी” ने भेजा है।
(यह लेखक का व्यक्तिगत विचार है)