कहते हैं ना कि प्रतिभायेँ किसी की बपौती नहीं होती, वो किसी पूँजीपति, जमींदार, नेता या फिर कोई दबंग को नहीं जानती उसे सिर्फ और सिर्फ प्रतिभा से मतलब है, यदि आपमें प्रतिभा है, तो वह आपको येन, केन, प्रकारेण सफलता दिला कर ही मानेगी।
वर्तमान समाज में जहाँ एक तरफ मौके बढ़े हैं, वहीं दूसरी तरफ समस्याएँ भी बढ़ी है, समाज में पहले से मज़बूत स्थितियों में मौजूद कई लोग मेहनत कर अपनी स्थिति को और मज़बूत बनाने के बजाय, कमजोर लोगों को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते हैं और अक्सर उस उभरते प्रतिभाओं को दबाने के लिए उन जैसे गरीब को ही हथियार बना, उनके खिलाफ़ इस्तेमाल करते हैं।
वर्तमान में ऐसे ही विपरीत परिस्थितियों में भी प्रयासरत युवाओं के लिए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियाँ सौंपना चाहूँगा …….
कंकरियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती है,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं,
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?
आज “कोसी की आस” टीम अपने प्रेरक कहानी शृंखला की 18वीं कड़ी में आपको ऐसे ही प्रतिभावान युवा से मिलवाने जा रही है जिन्होंने अपने परिवार को दबंगों के प्रताप से बाहर निकालने के लिए सफलता की कहानी गढ़ी है, उन्होंने न सिर्फ अपने परिवार को उन मुश्किलों से बाहर निकालकर अपने लिए एक नौकरी पाई बल्कि समाज के लिए एक बार फिर से संदेश दुहराने का कार्य किया है। वे अपने गाँव के पहले छात्र थे जिसने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से परा-स्नातक किया, तो आइये जानते हैं शाहजादपुर, मधेपुरा के श्री उमेश प्रसाद सिंह और श्रीमती जयमाला देवी के सुपुत्र श्री कुंदन कुमार सिंह से “कोसी की आस” टीम के बातचीत के प्रमुख अंश:-
- व्यक्तिगत परिचय
नाम :- श्री कुंदन कुमार सिंह
माता :- श्रीमती जयमाला देवी
पिता :- श्री उमेश प्रसाद सिंह
शिक्षा- 10वीं :- शाहजादपुर उच्च विद्यालय, शाहजादपुर, मधेपुरा।
12वीं :- एस आर पी इंटर कॉलेज, पटना।
स्नातक :- बिहार नेशनल कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय, पटना।
परास्नातक :- जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।
- ग्राम +पोस्ट :– शाहजादपुर।
- जिला :- मधेपुरा।
- पूर्व में चयन :- (क) सिविल सेवा (यूपीएससी) प्रारंभिक परीक्षा 2007
(ख) सिविल सेवा (यूपीएससी) प्रारंभिक परीक्षा 2010
(ग) स्टेट बैंक पीओ एग्जाम 2008 (टायर-3 में कंप्यूटर सर्टिफिकेट जुलाई 2008 के पहले का ना होने के कारण अयोग्य कर दिया गया)।
- वर्तमान पद :- अधीक्षक, केंद्रीय वस्तु एवं सेवा कर, मुंबई मध्य आयुक्तालय, मुंबई।
- अभिरूचि :- अपने प्रोफेशनल लाइफ में निपुण होने की प्रबल इच्छा के अलावा, आम लोगों के जीवन में आए हुए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन को समझने की कोशिश करना।
- किस शिक्षण संस्थान से आपने तैयारी की:- इस प्रश्न का जबाब देते वक्त मुस्कुराते हुये श्री कुंदन बोलते हैं कि तैयारी तो स्व-अध्ययन से ही किया लेकिन एक पुरानी कहावत “तार से गिरा, खजूर पर अटका” में थोड़ा परिवर्तन करना चाहूँगा, जो मेरे साथ घटित हुआ, मैं “तार से गिरकर, खजूर पर नहीं बल्कि बंबइया आम पर अटक गया”। तैयारी तो मैं संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित होने वाली सिविल सेवा परीक्षा का कर रहा था लेकिन कर्मचारी चयन आयोग द्वारा आयोजित संयुक्त स्नातक स्तरीय परीक्षा 2008 में शामिल हुआ और इंस्पेक्टर, केंद्रीय उत्पाद शुल्क में अंतिम रूप से चयन हो गया।
- आपको प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी की प्रेरणा कहाँ से मिली:- बेहद स्पष्ट शब्दों में श्री कुंदन बताते हैं कि “ना तो मैं किसी पूँजीपति का बेटा था और ना ही किसी जमींदार का” लिहाज़ा मेरे समझ से जीविकोपार्जन का सबसे आसान और एकमात्र जरिया मेरे लिए सरकारी नौकरी था। अर्थात कह सकते हैं कि गरीबी ने नौकरी के लिए पढ़ना सीखा दिया।
- आप इस सफलता का श्रेय किसे देना चाहते हैं:-मैं अपनी सफलता का श्रेय माता-पिता को, जिन्होंने न सिर्फ आर्थिक मदद की बल्कि भावनात्मक रूप से हर वक्त, चाहे परिस्थितियाँ जैसी भी हों, मेरे साथ थे, मुझमें भरोसा बनाए रखा तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को जिसने मेरे बौद्धिक क्षमता को एक नया आयाम दिया, को देता हूँ।
- वर्तमान में प्रयासरत युवाओं के लिए आप क्या संदेश देना चाहते हैं:- ज्ञान के महासागर में मेरियाना गर्त को फतह करने की काबिलियत रखें और हाँ कंप्यूटर तथा अंग्रेजी का ज्ञान महत्वपूर्ण है, इसे अपने जीवन का हिस्सा बना लें, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि सफलता आपके कदम चूमेगी।
प्रतियोगी परीक्षा के लिए प्रयासरत युवाओं को अल्लामा इक़बाल की पंक्तियाँ हमेशा याद रखनी चाहिए कि:-
“ख़ुदी को कर बुलंद इतना,
कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे,
बता तेरी रज़ा क्या है”?
- अपनी सफलता की राह में आनेवाली कठिनाई के बारे में बताएं :– कठिनाइयाँ तो बचपन से ही लगी हुई थी लेकिन पापा को जब गाँवके ही बैंक में एक सामान्य सी नौकरी लगी तो थोड़ी उम्मीद जगी, लेकिन महज़ उस नौकरी पर हम चार भाई-बहन का परिवार चलाना उनके लिए आसान नहीं था, हमलोग उस वक्त काफी छोटे थे उतनी समझ नहीं थी लेकिन पापा परिवार को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहे और उसी का परिणाम हुआ कि वे विभागीय परीक्षा में सफल होकर थोड़े बेहतर स्थिति में आ गए। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के ही सरकारी प्राथमिक और उच्च विद्यालय से हुई, बेहतर पढ़ाई के उदेश्य से जब हम गाँव से पास के ही जिला मुख्यालय सहरसा आए तो लॉज में एक छोटे से रूम में रहना, खाना बनाना, कपड़ा साफ करना के आलावे आए दिन गाँव से आए हुए मेहमानों का स्वागत करने के साथ-साथ पढ़ाई करना बहुत मुश्किल था। इसके आलावे क्या पढ़ें? क्या ना पढ़ें? कौन सी किताब पढ़ें? जिससे सफलता मिलेगी, कुछ पता नहीं था।
12वीं में एस आर पी इंटर कॉलेज, पटना में गणित विषय में नामांकन करवाया, 12वीं में अच्छे अंकों से सफल हुआ। मैं अपने लक्ष्य को तय नहीं कर पा रहा था, कभी इंजीनियरिंग तो कभी सिविल सेवा जैसे कई सवाल मन में आ रहे थे। अपनी क्षमता के अनुसार निर्धारित समय में सही लक्ष्य का चुनाव करना मेरे लिए सबसे बड़ी कठिनाई थी। आख़िरकार मैंने सिविल सेवा में जाने को अपना लक्ष्य बनाया, मैंने स्नातक में समाजशास्त्र विषय से बिहार नेशनल कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय, पटना में नामांकन ले लिया। मैंने अपने प्रयास में कभी कमी नहीं की और ज्यादा-से-ज्यादा किताबें पढ़ने का आदत डाल लिया, जिसमें कोर्स से बाहर की किताबें भी हुआ करता था। मैं बिहार नेशनल कॉलेज में प्रथम श्रेणी के साथ अपने विषय में समूचे कॉलेज में द्वितीय स्थान प्राप्त किया, यहाँ तक तो सब ठीक था किन्तु हर सिविल सेवा का सपना देखने वाले छात्र की तरह मैं भी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली जाना चाहता था, ताकि सिविल सेवा की तैयारी के लिए उचित माहौल मिले और आर्थिक कठिनाइयों से भी बचा जाए। मैंने भी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से परा-स्नातक के लिए प्रवेश परीक्षा दिया और मैं सफल हो गया, मेरे लिए यह सफलता बहुत बड़ी थी, मैं काफ़ी खुश था क्योंकि अबतक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पढ़ने वाला गाँव से मैं पहला व्यक्ति था लेकिन वो कहते हैं न कि भगवान भी परीक्षा लेना नहीं भूलते, मेरे साथ वही हुआ, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में नामांकन तो हो गया लेकिन प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा ठीक से नहीं होने के कारण काफ़ी मेहनत के बाद भी मेरा वहाँ के शिक्षण शैली में अपने आपको समावेशित करना आसान नहीं था, एक तरफ जहाँ मेरे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय पहुँचने से परिवार का सामाजिक प्रतिष्टा बढ़ा था, वहीं मैं अपने आपको वहाँ समावेशित रखने का बहाने ढूँढ रहा था, देखते-देखते छः महीने बीत गए, मुझे अपनी और अपने परिवार की साख बनाए रखने के लिए मेहनत करने के आलावे कोई रास्ता नहीं दिखा, मैं कई विमुख करने वाले रास्ते से होते हुये, मेहनत के रास्ते पर लौट आया और इस जिद में जुट गया कि चाहे जितनी भी मेहनत क्यों ना करना पड़े, मैं करूँगा।
साथ ही समय-समय पर पारिवारिक समस्या जैसे समाज के दबंग लोग गरीब लोग को आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते हैं, मेरा परिवार भी आए दिन उसका शिकार बन रहा था और समाज में दुश्मनों की संख्या बढ़ती जा रही थी। तथाकथित अपनों से भी सहयोग बहुत कम या फिर यूँ कहें कि न के बराबर मिलता था। पूरा परिवार काफ़ी परेशान रहता था। आखिरकार हमलोगों ने ऐसे लोगों से हरसंभव दूर रहने का प्रयास किया ताकि हमलोग अपने-अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकें।
मिर्ज़ा ग़ालिब की इस पंक्तियों से हर समस्याओं से बाहर निकलने मदद मिला जिसे आप सबके साथ साझा करना चाहूँगा…..
“कुछ इस तरह मैंने, ज़िंदगी को आसान कर लिया,
किसी से मांग ली माफ़ी, किसी को माफ़ कर दिया”
(यह “कुंदन कुमार सिंह” से “कोसी की आस” टीम के सदस्य के बातचीत पर आधारित है।)
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टीम- “कोसी की आस” ..©