हमर तिल-तिल बहबे??

0
182
- Advertisement -

स्पेशल डेस्क
कोसी की आस@पटना

आज मकर संक्रांति है। मिथिलांचल का तिला संकरायत। दादी ने सुबह से ही आदेश ज़ारी कर रखा है “बिना नहैने किच्छ खाए ला नै भेटतौ”। पौष माह की हाड़ कंपाती ठण्ड। ज़रा-सा भी कपड़ा हटाओ तो शरीर के तमाम रोएँ खड़े होकर विरोध में उतर आते हैं। ऐसे में नहाने का निर्णय तो सचमुच शारीरिक अंगों के साथ असहयोग आन्दोलन जैसा है। दादी फिर आतीं और कहतीं “आई जे जतेक बेर पोखरि में डुबकी मारत, ओतेक तिल के लाई ओकरा भेटत”।

- Advertisement -

हम बच्चा पार्टी असमंजस में पड़ जाते। तिल के लाई का मोह किससे छूटे! जब घर का वातावरण तीन दिनों से तिल, गुड़, मूढ़ी, चिउड़ा की खुशबू से मह-मह कर रहा हो। हम पूरी हिम्मत बटोरकर, इस मोह के साथ कि पोखरि में तिल का लाई मिलता है तो चापाकल पर कम-से-कम मूढ़ी का लाई तो मिलेगा ही, सारे कपड़े उतार नहाने के लिए दौड़ जाते। नहाकर आते ही मम्मी गरम कपड़े पहनाने में लग जातीं। पापा पूरे मनोयोग से मिट्टी वाले चूल्हे के पास बैठकर खिचड़ी बनाने में लगे हैं।

हमारे लिए घूरा (अलाव) जला दिया गया है। बच्चा पार्टी के सारे मेम्बर गोलमेज सम्मेलन की तरह बैठे हैं। यहाँ लम्बी-लम्बी फेंकी जा रही है। “मेरे दादाजी इतने शक्तिशाली थे कि एक डुबकी में पूरा तालाब पार कर जाते थे”। बस इतना ही, “मेरे दादाजी इतने शक्तिशाली थे कि एक बार भूत ने उनसे खैनी माँगा था तो उन्होंने भूत को पटक दिया था”। भक्क झुट्ठा कहीं का, तुम झुट्ठा, इससे पहले कि हमारी नोंक-झोंक तकरार में बदल पाती, दादी कटोरे में तिल-गुड़ ले आतीं। हमर तिल बहबे? हाँ दादी बहबौ, तीन बार यही प्रश्न और तीनों बार यही उत्तर। बचपना था, नासमझ थे, बिलकुल अहसास नहीं था कि तिल बहना इतना आसान नहीं। खैर, हाँ तो कह दिया। जिम्मेदारी तो ले ली। इतने में पापा की तरफ से भी ईशारा आ जाता कि खिचड़ी तैयार है। अकेली खिचड़ी ही नहीं, इसके चार यार भी। बिहारी खिचड़ी के चार यार, घी-पापड़-दही-अचार।

दादियाँ महज दादी नहीं होतीं, होती हैं वो एक पूरी पीढ़ी, होती हैं वो पूरी संस्कृति, मकर संक्रांति के बहाने, तिल बहने के बहाने अपनी विरासत हमें सौंप गयीं और हम दादी का तिल बह नहीं पाए। सांस्कृतिक अकाल के दौर से गुजर रहे हैं हम, फिर किसी विदेह की मजबूती से हल थामना होगा, फिर किसी दिनकर-बेनीपुरी को कलम चलानी होगी। अपनी सांस्कृतिक थाती को वापस पाना है। याद है ना, बचपन में दादी से तिल बहने का वादा किए थे।

मकरसंक्रांति के दिन हम सभी के बचपन की उद्गार को लिपिबद्ध कर एक फिर से उन दिनों की याद में डुबकियाँ लगाने का काम किया है माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एमफिल कर रहे युवा और बेहतरीन लेखन के लिये जाने जाने वाले सीतामढ़ी के अमन आकाश।

- Advertisement -