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“दिव्या त्रिवेदी”
कोसी की आस@पूर्णियाँ
सब बदलते देखा है, छलते देखा है,
दिल के रिश्तों को, अजनबी होते देखा है।
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बीत जाने को आतुर, रात को अब,
ठहर कर, जमते, सर्द होते देखा है ।
दिन ने छोटा कर लिया, सफर अपना,
शाम जल्दी, सहर देर से आते देखा है।
होने लगा विस्तार, ख्वाबों का अब ज्यादा,
हकीकत को सिमट कर, छोटा होते देखा है।
खून के रिश्ते, दिल को दाग से लगने लगे,
गैरों को अब ज्यादा, अपना बनते देखा है।
चिर दे गिरेबान, एक गलत निगाह काफी है
हर औरत को हर मर्द से, यूं बचते देखा है।
अपना भी मिजाज, बदलने लगा अब तो,
सरल से खुद को बहुत, जटिल होते देखा है।
जन्म दिया जिस प्रेम को, प्रेम से मैंने,
उसी का खुद को, कातिल होते देखा है।
इस दुनियां को, दोष ही क्या देगी तू दिव्या,
तूने तो खुद ही, खुद को, छलते देखा है।
शब्द:- सहर= सुबह
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