“लड़की का घर”

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“प्रिया सिन्हा”
कोसी की आस@पूर्णियाँ।

“लड़की का नहीं कोई घर होता है,
कहने को तो दो-दो मगर होता है;
मायका होता है भ्रात-पिता का तो,
ससुराल का मुख्य ज्येष्ठ-ससुर व,
उसके स्वयं का हमसफर होता है !

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लड़की का नहीं कोई घर होता है !

मायके वाले कहते-
इसने तो दूजे घर जाना है;
ससुराल वाले कहते-
उसने तो दूजे घर से आना है;
मत पूछो दोस्तों इन बातों का,
लड़की पे क्या असर होता है ?

लड़की का नहीं कोई घर होता है ।

एक वक्त पर लड़की की
शादी करा दी है जाती;
जिसे वह यही सोच कर है निभाती;
एक घर तो छूट गया,दूजा भी ना छूट जाए,
इस बात का उसको हमेशा डर होता है !”

लड़की का नहीं कोई घर होता है ।

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