“प्रिया सिन्हा”
कोसी की आस@पूर्णियाँ
मुहब्बत के बाजार में हर कोई,
अपना दिल बिछाएं बैठे हैं।
किसी का दिल जल्द बिक जाता,
तो कोई वर्षों लगाएं बैठे हैं॥
मुहब्बत के बाजार में हर कोई,
अपना दिल बिछाएं बैठे हैं॥
कोई तय करने में इसकी कीमत,
अपना कीमती वक्त गंवाएं बैठे हैं।
जो ना मिलता उसके पीछे भाग रहें,
जो है मिलता उसको ठुकराएं बैठे हैं॥
मुहब्बत के बाजार में हर कोई,
अपना दिल बिछाएं बैठे है।
कर ली खरीदारी जिसने वक्त पर दिल की,
अपने जान पे वो दिल-ओ-जहां लुटाएं बैठे हैं।
पर जो ना बेच सका समय पर खुद का,
ना हीं खरीद सका किसी और का दिल,
होकर खामोश किसी कोने में तड़प के,
वो तो लगातार आँसू बहाएं बैठे हैं॥
मुहब्बत के बाजार में हर कोई,
अपना दिल बिछाएं बैठे हैं॥
[नोट:-चूंकि ये एक तुलनात्मक कविता है इसलिए यहाँ खरीद-फरोख्त शब्दों का प्रयोग जरूरी था, अर्थात दिल की खरीद-बिक्री से तात्पर्य किसी को अपना बना लेना और किसी का हो जाने से है।]