डर है मुझे,
कहीं मिट ना जाये हमारे,
निजी संस्कार,
कुछ कट्टरवादी और कुछ सेक्युलरवादी,
जैसे-जैसे कर रहे है हम पर अत्याचार।।
देश कई मुश्किल दौरों से गुजर रही है,
कभी आतंकवाद से,
तो कभी चीन, पाकिस्तान से,
तो कभी घर में ही बैठे गद्दारो से जूझ रही है।।
लोकतंत्र हमारी ताकत है,
पर अब तो ताकत ही लोकतंत्र बनती जा रही है,
देश के लिए समर्पित प्रधानसेवक गुनाहगार लगने लगे,
देश को जलानेवाले में मानवाधिकार दिखने लगे।।
कुछ मीडिया वाले अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने में लगे हैं,
तो कुछ चापलूस नेता अपनी वोटबैंक बनाने में लगे हैं,
हम युवासाथि ओबीसी, दलित, जाट और पटेल के नाम पर खुद को बांटने में लगे हैं,
और अकेले एक ऋषि देश को बचाने में लगे हैं।।
झूठी शान-ऐ-शौक़त के लिये लोग कैसी-कैसी दुकान चलाने लगे हैं,
सत्ता के लिए अपनी वजूद-ऐ-विरासत तक को छिपाने लगे हैं,
हद तो तब हो गई मेरे दोस्त, जब कुछ चंद कायर महान स्वंत्रता सेनानी वीर सावरकर को भी अंग्रेजों का गुलाम बताने लगे हैं।।
आइये हमसब मिलकर संकल्प लेते हैं,
ना वतन टूटने देंगे और ना इतिहास बदलने देंगे,
चाहे कलम कंप्यूटर की दुनिया से बाहर आना पड़ेगा,
पर अपनी संस्कृति एवं पहचान को कभी मिटने नहीं देंगें।।
उपर्युक्त पंक्तियाँ महुआ बाज़र, सहरसा के “स्नेह~राजहंस (संतोष कुमार)” ने देश की वर्तमान हालात को अपने कलम के माध्यम से बयां करते हुए “कोसी की आस टीम” को यह कविता भेजी है। हम समस्त “कोसी की आस” परिवार की ओर से उन्हें शुभकामनाएं देते हैं और उनके कलम में माँ सरस्वती की कृपा बरसती रहे, यही कामना है।