“एक औरत की ज़ुबानी”

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एक बार एक औरत अपने दर्द-ऐ-गाथा हमें सुनायी थी, मैं काफी भावुक हो गया था और सोचने लगा कि आखिर ऐसे पुरूष खुद को समझते क्या हैं? नारी की भी अपनी वजूद व अस्तित्व होती है। क्या नारी के बिना पुरूष होना भी संभव हैं? मैं उनके दर्द को अपने शब्दों में पिरोकर इस कविता के माध्यम से आपको प्रस्तुत करता हूँ….

हे प्रिये?
क्यूं तुम मुझे बार-बार बदनाम करते हो,
पहले तुम अपने मतलब पूरे करते हो,
फिर क्यूं तुम मुझे सरे आम करते हो !!

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ना मेरे कोई रंग है, ना मेरे कोई रुप है,
ना ही मेरे कोई आकार है,
जैसा तुम चाहते हो मुझसे,
उसी रुप में तुम मेरे पहचान करते हो!!

जब तुम मुझको कोठे पर सजाते हो,
तो मैं “वैश्या” नजर आने लगती हूँ,
जब तुम मुझको महल में सजाते हो,
तो मै “रानी” नजर आने लगती हूँ!!

मानती हूँ मैं,कि औरत बेव़फा होती है,
पर कभी गौर से सोचो हे प्रिये,
तेरे ही एक रुप पिता-भाई के लिए, सारी खुशी त्याग करती हूँ,
और तू ही मुझे बेव़फा नाम देते हो!!

गलती करना कभी मैं नहीं चाहती,
पर हर बार तुम मुझसे गुनाह करवाते हो,
फिर तुम सारा ईल्जाम़ मुझ पर लगाकर,
मेरे खुद की जिन्दगी को ख़ुद से ही बेजान करते हो!!

आखिर कमी ही क्या है मुझमें?
सिर्फ यही ना कि मैं एक औरत हूँ,
पर ये कभी मत भुलो, हे प्रिये?
अगर मैं ना होती तो तेरे जिन्दगी भी इतने आसान ना होते!!

उपर्युक्त पंक्तियाँ महुआ बाज़र, सहरसा के “स्नेह~राजहंस (संतोष कुमार)” , जो एक घटनाक्रम को अपने कलम के माध्यम से बयां करते हुए “कोसी की आस टीम” को यह कविता भेजी है। हम समस्त “कोसी की आस” परिवार की ओर से उन्हें शुभकामनाएं देते हैं और उनके कलम में माँ सरस्वती की कृपा बरसती रहे, यही कामना है।

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