वर्तमान वैश्वीकरण और बाजारीकरण वाले परिवेश ने जिस प्रकार प्रकार दुनियाँ को प्रभावित किया है, उससे संगीत अछूता नहीं रह पाया है। मुख्य धारा की संगीत के स्वरूप भी बदल चुके हैं और जहाँ संगीत के कई स्वरूप नित्य नई-नई ऊँचाइयाँ प्राप्त कर रहे हैं, वहीं संगीत के कुछ मूल स्वरूप पीछे भी होते जा रहे हैं लेकिन ख़ुशी इस बात से होती है आज़ के इस युग में भी हमारे समाज के कुछ युवा उस विरासत को बचाने में जुटे हैं।
“कोसी की आस” टीम अपने प्रेरक कहानी शृंखला की साप्ताहिक और 34वीं कड़ी में आज़ जिस कोसी की बेटी की कहानी आप सब के सामने प्रस्तुत करने जा रही है, उस बेटी ने यह साबित किया है कि सिर्फ पेशे के लिए ही नहीं बल्कि कुछ कार्य अपनी अद्भुत, आलौकिक, अविश्वासनीय और अकल्पनीय विरासत की रक्षा के लिए भी किए जाते हैं, साथ ही यदि ईश्वर ने चाहा तो, वही मेरा पेशा हो जाएगा। तो आइये मिलते हैं बिहार की लोक-संगीत में अपना स्थान कायम कर चुकी सिंगारपुर, मधेपुरा के श्री दिलीप झा और श्रीमती कविता देवी की सुपुत्री और न्यू कॉलोनी, सहरसा निवासी श्री मयंक मिश्र की पत्नी श्रीमति स्मिता झा से।
मैं श्रीमति स्मिता झा से बातचीत का अंश बताने से पहले उनके लिए एक चर्चित पंक्ति साझा करना चाहूँगा कि
“कुछ अलग करना है,
तो भीड़ से हट कर चलो,
भीड़ साहस तो देती है,
पर पहचान छिन लेती है।”
सहरसा स्थित रमेश झा महिला कॉलेज से संगीत में स्नातक (द्वितीय वर्ष) कर रहीं श्रीमति स्मिता बताती हैं कि जिस प्रकार आज लोकगीत और संगीत के मायने बदले हैं, लोग तेज़ (धूम-धड़ाका वाले) संगीत को प्राथमिकता दे रहे हैं, ऐसे में अपनी मिट्टी की, अपनी संस्कृति की और अपनी सांस्कृतिक विरासत की संगीत को बचाना एक चुनौती से कम नहीं है, लेकिन खुशी इस बात से है कि आज़ के इस पेशेवर युग में भी कई लोग पूरी मेहनत और लगन से अपनी सांस्कृतिक विरासत बचाने में लगे हुये हैं और मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि वह विरासत भी उन मेहनतकश युवाओं को जरूर बचाएगी।
चार भाई-बहन में बहनों में सबसे छोटी श्रीमति स्मिता कहती हैं कि आज भी कुछ लोग हैं जो लोक-संगीत और कलाओं को न सिर्फ सँजो रहे हैं बल्कि उसके विस्तार के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं और उसी कड़ी में मैं भी कुछ बच्चों को लोक गीत और लोक संगीत की निःशुल्क शिक्षा देकर कुछ योगदान करने का प्रयास कर रही हूँ।
बचपन से ही संगीत में रुचि रखने वाली श्रीमति स्मिता धार्मिक रीति-रिवाज, शादी-ब्याह या मुंडन या कोई लोकोत्सव पर गाए जाने वाले लोकगीतों को बड़े ही ध्यान से सुनती थी। अपने स्कूल के कार्यक्रम में हिस्सा लेकर लोक गीतों की प्रस्तुति देती थी, अपनी गायकी से वह अपने स्कूल की चेहती बनी रही। उन्होंने आगे बताया कि बचपन से ही मेरी अभिरुचि संगीत से थी, इसलिए मैंने अपना गंतव्य संगीत को चुना और खुद ही गाने की कोशिश करने लगी, लेकिन “बिन गुरु ज्ञान नही” वाली बातें चरितार्थ हो रही थी, एक वक्त के बाद मुझे गुरु की कमी महसूस होने लगी। संगीत से लगाव के कारण संगीत की शिक्षा प्रयाग संगीत विश्वविद्यालय से प्राप्त की तथा अभी भी संगीत गुरु प्रो॰ भारती सिंह की देखरेख में संगीत की शिक्षा ग्रहण कर रही हूँ। युवा गायिका श्रीमति स्मिता कहती है कि संगीत मेरे लिए जान की तरह है, मेरी ख्वाहिश है कि मैं एक गायिका के रूप मैथिली लोकसंगीत को समूचे देश में प्रतिष्ठापित करूँ। मैथिली हमसबकी पहचान है और इसकी एक खास मिठास है, जो दूसरी भाषा में नहीं मिलती।
लोक गायिका शारदा सिन्हा और रंजना झा को प्रेरणा स्रोत मानने वाली स्मिता बताती हैं कि मैथिली लोकसंगीत ने मुझे बचपन से ही इस कदर प्रभावित किया था कि माँ के सहयोग से मैं, पापा से छुप-छुपकर गाने चली जाती थी लेकिन बाद में सफलता देखकर मेरे पिताजी भी मुझे सहयोग करने लगे। यूँ तो उनकी तमन्ना मेरे द्वारा मैथिली गीत-संगीत को एक पुस्तक का रूप दिए जाने की थी ताकि आने वाली पीढ़ी को बताया जा सके कि लोकगीतों के अर्थ लोक जीवन से जुड़े हुए होते हैं, लोकगीतों के बिना तो जीवन ही अधूरा है। अपनी गायकी के बदौलत कई महोत्सव जैसे- कोशी महोत्सव, उग्रतारा महोत्सव, युवा उत्सव, संत शिरोमणि लक्ष्मीनाथ गोसाईं महोत्सव, बिहार दिवस महोत्सव, झूलनोत्सव महोत्सव, कोशी सांस्कृतिक महोत्सव, बाबाजी समारोह, इप्टा महोत्सव की शान बन चुकी श्रीमति स्मिता ने मैथिली गीतों से अपनी अलग पहचान कायम की है। उन्हें युवा उत्सव में राज्य स्तर पर दूसरा स्थान प्राप्त हुआ है।
श्रीमति स्मिता के अब तक के किरदार के लिए एक पंक्ति के माध्यम से कहना चाहूँगा कि
“इतर से कपड़ों का महकाना कोई बड़ी बात नहीं है,
मज़ा तो तब है जब आपके किरदार से खुशबू आये!!”
अपनी सफलता का श्रेय अपनी माँ श्रीमती कविता देवी और अपने पति मयंक मिश्र जी को देने वाली श्रीमति स्मिता कहती हैं कि इनके साथ-साथ आज़ मैं जो कुछ भी हूँ वो स्वरांजली को देती हूँ, जो मेरा संगीतालय है।
अपनी इस सफलता की राह में आनेवाली कठिनाई के बारे में बताते हुये स्मिता कहती हैं कि मेरे पापा को मेरा संगीत के प्रति इतना प्रेम पसंद नहीं था, उनका साथ नही मिला क्योंकि वो बेटी को एक पारिवारिक ज़िम्मेदारी समझते थे, साथ ही समाज में लोग चुटकियां लेते थे, इनसबके बाबजूद मेरी माँ मेरे हर फैसले के साथ हमेशा हिम्मत से खड़ी रही, लोगों का ताने ने मेरे जीवन को और सुदृढ़ और संकल्पित बना दिया। जब मेरी शादी तय कर दी गई, मुझे डर सताये जा रहा था कि कही मेरा संगीत उस परिवार के बीच ना आ जाये। इस बात से में काफी दिन तक मानसिक रूप से परेशान रहा करती और इतनी हिम्मत भी नही थी कि मैं उस मसले पर अपने माँ या पापा से सवाल करूँ, लेकिन मुझे क्या पता था कि जिस घर में मेरी शादी तय हुई है उस घर मैं तो पहले से ही माँ सरस्वती का वास है। बरसम,बशनही,सहरसा निवासी स्वर्गीय कृत्यानंद मिश्र के पुत्र श्री मयंक मिश्र से मेरी शादी हुई और उन्होंने मेरे संगीत को पंख लगाने में बहुत बड़ा योगदान किया है, साथ ही अब मेरे पिता और गाँव वालों का भी काफी सपोर्ट मिलने लगा है। मेरे संगीत के जीवन में मेरे पति का किरदार एक शिक्षक की तरह है जो न सिर्फ मुझे गाइड करते हैं बल्कि उन्होंने मेरे लिए कई गीत भी लिखा है।
अंत में मैं अपने युवा दोस्तों से कहना चाहती हूँ कि अपने अंदर कुछ पाने की जुनून को जिंदा रखिए, अगर आपके भीतर लग्न और जुनून की आग जल रही होगी तो वक्त लग सकता है लेकिन इतना तो तय है कि कामयाबी जरूर मिलेगी।
(यह “स्मिता झा” से “कोसी की आस” टीम के सदस्य के बातचीत पर आधारित है।)
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टीम- “कोसी की आस” ..©