सहरसा : एक वक़्त महज़ ₹500/- प्रति महीने के लिए खुद भटकने वाले सुजीत बने सैकड़ों छात्र के लिए तारणहार।

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“सच्चे दिल से सेवा करने वालों को मुश्किलें आ सकती है, किन्तु उस नेक दिल इरादे के सामने, इंसान क्या, भगवान को भी मज़बूरन साथ आना पड़ता है।”

कोसी की आस टीम आज अपने प्रेरक कहानी शृंखला की साप्ताहिक और 30वीं कड़ी में एक बार फिर से एक ऐसे कोसी के बेटे की कहानी प्रस्तुत करने जा रही, जो न सिर्फ युवाओं के लिए प्रेरक है, बल्कि हर-उस शख़्स को सीखने या प्रेरित होने के लिए मजबूर करेगी, जो हरेक अच्छे कार्य के लिए साधन का रोना रोते रहते हैं और कार्य प्रारंभ करने से पूर्व ही उन अच्छे विचारों का दफन कर देते हैं।

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कोसी की आस परिवार अपने सभी पाठकों से कहना चाहती है कि साधन का रोना रोने या अन्य समस्याओं को गिनते रहने से समाधान नहीं होता, अगर सच में हम समाधान चाहते हैं, तो उसके लिए पैसा, पावर और सहयोग से ज्यादा उस लक्ष्य को पाने के लिए आपके जज़्बे, मेहनत और दृढ़निश्चय पर निर्भर करता है।

आज हम जिनकी बात करने जा रहे हैं, यदि हम उनकी व्यक्तिगत सफलता की बात करें, तो वह उतनी बड़ी नहीं किन्तु उस छोटे से नौकरी के साथ-साथ वे जो सहरसा में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे गरीब और बेरोजगार युवाओं में “एक उम्मीद की किरण” जगाने के लिए जो कार्य कर रहे हैं, वो न सिर्फ अतुलनीय है बल्कि अकल्पनीय भी। तो आइये मिलते हैं धबौली, सहरसा के श्री नारद प्रसाद सिंह के सुपुत्र सुजीत कुमार सिंह से।

आर्थिक रूप से बेहद सामान्य परिवार से आने वाले श्री सुजीत बताते हैं कि मेरी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई और स्नातक जिला मुख्यालय सहरसा से पूरी करने के बाद मेरे पास बहुत विकल्प नहीं थे। लिहाज़ा सहरसा में ही रहकर ट्यूशन पढ़ाकर और कुछ मदद घर से लेते हुये, हमने सामान्य प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी प्रारंभ कर दी।

श्री सुजीत आगे बताते हैं कि मेरे लिए सबसे बड़ी समस्या मार्गदर्शन की थी, मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि मैं कहाँ से शुरू करूँ, साथ ही यदि कोई जान-पहचान में जो सफल थे या हो रहे थे, उनसे पुछने पर उनके रवैये को देख ऐसा लगता कि मैंने इनसे पुछकर कोई गलती तो नहीं कर दी? सही मार्गदर्शन तो दूर, प्रोत्साहित करने वाले दो-अच्छे शब्द भी बमुश्किल ही मिलते थे। प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के शुरुआत में अपनों से मार्गदर्शन तक में मिली निराशा के दौरान एक दिन भटकते-भटकते जा रहा था तो एक अपरिचित छात्र ने बातचीत के दौरान बताया कि आनंद मार्ग में क्विज चलता है, मैंने भी वहाँ जाने का निर्णय किया और मुझे बड़ी मुश्किल से जगह मिली और सही मायने में मेरी तैयारी वहीं से शुरू हुई। मैं यहाँ अवश्य बताना चाहता हूँ कि मैं जिस लौज में रहकर पढ़ता था, वहीं एक लड़का था जिसे एक क्विज में तैयारी करने का जगह मिला हुआ था, हम जब भी उससे पूछते थे कि आप रोज कहाँ जाते हो, वह मुझे नहीं बताता था किन्तु जब उसको नौकरी मिली, उस दिन से पढ़ने की ललक और बढ़ गई।

श्री सुजीत से जब उनके पढ़ाई के दौरान होने वाली और मुश्किलों के बारे में पूछा गया तो भावुक होते हुये श्री सुजीत बताते हैं कि तैयारी के दौरान पैसे के लिए जब घर जाते थे तो पापा के साथ मज़बूरी होने के कारण कभी-कभी पापा द्वारा बोलना कि “तुमसे कुछ नहीं हो पाएगा” से बहुत आहत हो जाता था, उस समय लगता था आसमान से गिर गए, हिम्मत टूट जाता था, मेरे साथ मेरा छोटा भाई भी रह कर पढ़ता था। एक या दो-ट्यूशन पढ़ाकर सहरसा में पढ़ तो लेते थे, लेकिन जब परीक्षा देने के लिए बाहर जाना पड़ता था, तब काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता था, प्लेटफार्म पर सोना पड़ता था और ऐसे में अच्छे से परीक्षा देना संभव नहीं था। हमलोगों के मुश्किल को देखते हुये, मेरा एक साथी जिसका दूध का बिजनेस था, उसने कहा कि यदि आप मेरा एक-दो घंटा हिसाब कर दीजिएगा तो मैं आपको ₹500/- दूँगा। उस ₹500 से रूम रेंट दे देता था, लेकिन  जब भी पढ़ने के लिए बैठते थे, तो चारों ओर से परेशानी ही नजर आता था। वैसे परिस्थिति में भी सफल उम्मीदवारों को देखकर मन में पढ़ने की ललक बनी हुई रहती थी।

बेहद सरल स्वभाव के श्री सुजीत सरल शब्दों में आगे बताते हैं कि मेरा एक दोस्त सचेत कुमार परमार जो दुबई में इंजीनियर है, एक दिन उनका फोन आया कि आप दुबई आ जाइए में यहाँ काम लगवा दूँगा, उस वक्त की कठिनाइयां देखकर मैंने हाँ बोल दिया। दुबई जाने के क्रम में जो भी खर्च पासपोर्ट एवं हवाई-जहाज का टिकट बनाने आदि में हुआ उसे मेरे दोस्त ने दे दिया। लेकिन मैं वहाँ पहुँचकर काम मिलने के बाद भी खुश नहीं था। किसी तरह 1 साल रहकर फिर वापस आ गया और वहाँ से जो कुछ पैसा हुआ, उससे फिर पढ़ने की तैयारी शुरू कर दिया। इसी क्रम में पता चला कि जितेंद्र तिवारी के लौज पर क्विज चलता है। वहाँ हम दिन-रात जाना शुरू कर दिये। उस डिबेट के जीतने लड़के थे, उन सबको नौकरी मिल गई थी, उसमें जितेंद्र कुमार तिवारी जो अभी पूर्णिया स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत हैं एवं चंदन सिन्हा जो अभी लोको पायलट हैं, इन सबका मेरे लिए काफी योगदान रहा, खासकर कठिन परिस्थितियों में दुबई ले जाकर अधिक तंगी से बाहर निकलकर पढ़ाई करने में सूचित कुमार परमार का मेरे जीवन में बहुत बड़ा योगदान रहा है।

श्री सुजीत आगे बताते हैं कि लगातार मेहनत और माता-पिता का आशीर्वाद, पत्नी-भाई की दुआ और सभी सहयोगियों खासकर जीतेंद्र कुमार तिवारी, चंदन सिन्हा एवं छोटे भाई जो वर्तमान में श्रम और रोजगार मंत्रालय, अहमदाबाद में कार्यरत धर्मेंद्र कुमार के वजह से आखिरकार मेरा भी चयन सिकंदराबाद में रेलवे में टेक्नीशियन के पद पर हो गया। लेकिन अपने बुड़े दिनों में आस-पास विभिन्न सफल लोगों के रहते हुए भी एक उचित और निःशुल्क मार्गदर्शन तक देने से कतराने वाले लोगों ने ही मुझे गरीब, जरूरतमंद एवं निस्सहाय छात्रों को प्रतियोगिता परीक्षाओं में निशुल्क सही मार्गदर्शन करने की प्रेरणा दी। एक बार फिर मैं सिकंदराबाद में परेशान होने लगा और आखिरकार मैंने सहरसा आकार नौकरी के साथ-साथ छात्रों को सहयोग करने का निर्णय किया। अंत में मैं “कोसी की आस” टीम का आभार व्यक्त करना चाहता हूँ कि मुझ जैसे एक सामान्य इंसान को प्रेरणा योग्य समझा गया।

श्री सुजीत की सबसे बड़ी ख़ासियत, जिसने सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह था “सिकंदराबाद में टेक्नीशियन के पद से अवनति होकर सहरसा में वर्तमान में ट्रैक मैन एंड मेंटेनर (चतुर्थ वर्गीय) के पद पर जॉइन कर अपने क्षेत्र के गरीब, जरूरतमंद एवं निस्सहाय छात्रों को उचित मार्गदर्शन देने के जज़्बे को।”

श्री सुजीत सहरसा में छात्रों और खुद के सहयोग से सहरसा कॉलेज कैम्पस के पास बीते कुछ महीनों से निःशुल्क सेंटर चला रहे हैं जिसमें वर्तमान में लगभग 200 के आसपास छात्र हैं जो न निःशुल्क मार्गदर्शन का लाभ ले रहे हैं बल्कि कई उसमें से सफल भी हो चुके हैं। उनके इस कार्य और जज़्बे को देख सहरसा कॉलेज के प्रधानाचार्य द्वारा भी कुछ मूलभूत सुविधा उपलब्ध कराई गई है“कोसी की आस” टीम श्री सुजीत के नेक इरादे और इस शानदार कार्य के लिए सलाम करती है।

 

(यह सुजीत कुमार सिंह से “कोसी की आस” टीम के सदस्य के बातचीत पर आधारित है।)

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टीम- “कोसी की आस” ..©

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