सहरसा की सैकड़ों एकड़ बंज़र जमीन, उगल रही सोना

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महेंद्र कपूर अभिनीत 1967 की उपकार फिल्म की गाने “मेरे देश की धरती, सोना उगले, उगले हीरे मोती………” की तर्ज़ पर सच में सहरसा की सकड़ों एकड़ बंज़र जमीन सोना उगल रही है। “हीरे की पहचान, जौहरी ही कर सकता है”, उक्त पंक्ति को एक बार फिर से उत्तर प्रदेश से सहरसा कपड़े बेचने फेड़ी वाले के रूप में आए आरिफ़ ने चरितार्थ किया है। आप जानकर हैरान हो जायेंगे, जहाँ एक तरफ सहरसा की कोसी नदी के किनारे वर्षों से हजारों एकड़ जमीन बेकार बंजर पड़ी हुई है, वहीं दूसरी ओर सहरसा रेलवे स्टेशन अमृतसर और भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जनसेवा एक्सप्रेस और जन साधारण एक्सप्रेस आदि द्वारा किसान और मजदूर का निर्यातक माध्यम का प्रतीत बना हुआ है। आज कोसी की आस” टीम अपने प्रेरक कहानी शृंखला की 24वीं कड़ी में आप सबके के सामने सहरसा जिले की एक ऐसी ही कहानी प्रस्तुत करने जा रही है, जिसमें कोसी नदी के किनारे की हजारों एकड़ बेकार बंजर पड़ी हुई जमीन, सोना उगल रही है।

सहरसा जिले के महिषी प्रखंड के बुलवाहा गाँव के करीब से कोसी नदी का प्रवाह है और नदी के ठीक किनारे की बालू वाली हजारों एकड़ जमीन यूँ ही बेकार पड़ी थी, बाढ़ और कटाव के डर से यहाँ के किसान इस जमीन पर खेती करने से हिचकते थे, लेकिन वो वर्षों पुरानी कहावत कि “हीरे की परख, जोहरी ही कर सकता है”, वैसा ही इस लंबे-चौड़े भू-भाग का हुआ, लगभग 4 साल पहले उत्तर प्रदेश से अपने कुछ दोस्तों के साथ कपड़े की फेड़ी लगाने आए आरिफ की नजर जब इन लंबे-चौड़े क्षेत्र में फैले इस बालू वाली जमीन पर पड़ी, तो उन्होंने जमीन के मालिक से बात की और कर्ज लेकर प्रयोग के तौर पर बेकार और बंजर पड़ी जमीन में से करीब 4 बीघा में तरबूज (Watermelon) की खेती शुरू की। इस फसल से उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ धीरे-धीरे उनका हर साल खेती का दायरा बढ़ता गया। साथ ही उनके इस कार्य से आसपास के सैकड़ों लोगों को रोजगार भी मिल रहा है।

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आरिफ़

इस बाबत जब आरिफ़ से बात की गई तो उन्होंने जो बताया, उन्हीं के शब्दों में सुनते है :- आरिफ़ बताते हैं कि मैं पहले यहाँ कपड़े का बिजनेस करता था, हमने देखा कि एक बड़ा भू-भाग बंजर जमीन रूप में पड़ा हुआ था, उसके बाद हमने जमीन मालिक से बात कर खेती चालू कर दिया।

अभी कितने क्षेत्र में खेती कर रहे हैं?:-  जब यह सवाल आरिफ़ से किया गया तो उन्होंने बताया कि शुरू में 4 बीघा से प्रारंभ किए थे और अब लगभग 500 बीघा में कर रहे हैं। करीब 100 किसान यहाँ के भी हैं लोकल, हम तो चाह रहे हैं और किसान जुड़े, यहाँ के लोकल आदमी को भी अच्छा मजदूरी मिल रहा है। इस साल आरिफ़ अपने इलाके से और 50 किसान को लाकर उनकी मदद से करीब 500 बीघा में खेती कर तरबूज उपजा रहे हैं।

आरिफ़ के साथी जावेद

आसपास के लोगों की मानें तो उनके काम से प्रभावित होकर अब गाँव वाले भी उनके साथ मिलकर काम कर रहे हैं। आरिफ़ के साथी जावेद बताते हैं कि शुरू-शुरू में हम लोगों को लगा कि कम-से-कम क्षेत्र में तरबूज प्रयोग के तौर पर लगाए, फिर धीरे-धीरे तीन-चार साल में बढ़ाकर अभी हम लोग लगभग 500 एकड़ में खेती कर रहे हैं। अब तो इधर के किसान भी खेती कर रहा है। उन्होंने बताया कि उत्तरप्रदेश से हमलोग करीब 50 परिवार आए हैं। इस फसल को तैयार होने में करीब-करीब 5 महीने लगता है। जावेद बताते हैं कि इस खेती में कम-से-कम 400 मजदूर काम करते हैं, साथ ही इससे आसपास के लोगों को विभिन्न रूप में कई रोजगार मिलता है। बाज़ार संबंधी सवाल के जबाब में जावेद बताते है कि यह तरबूज़ सिलीगुड़ी, कोलकाता और दिल्ली भी जाता है।

डब्लू सिंह

जमीन मालिक डब्लू सिंह से जब बात की गई तो उन्होंने बताया कि हमारी जमीन बंजर पड़ी हुई थी, आज से 4 साल पहले आरिफ़ से मेरी मुलाकात हुई और 4 साल से हम लोग खेती कर रहे हैं। इस खेती से बहुत अच्छा लाभ मिला है। हम चाहते हैं कि यहाँ के और किसान भी जुड़े और खेती करें। उन्होंने बताया कि एक बीघे में 30 हजार के आसपास लागत होती है और लगभग 15 से 20 हजार का बचत हो जाता है। यहाँ का तरबूज बिहार के कई जिलों के साथ-साथ नेपाल के कारोबारी आकर यहाँ से खरीद ले जाते हैं, साथ ही सिलीगुड़ी, कोलकाता और दिल्ली भी जाता है। सभी किसान आखिरी दिसंबर से आकर जून तक यहीं रहते हैं और फिर उसके बाद अपने गाँव वापस चले जाते हैं। बिहार की कोसी के बंजर जमीन से मिठास कि यह पैदावार होना वाकई जादुई है और इसका फायदा सीधे-सीधे इसकी खेती से जुड़े लोगों को हो रहा है।

Pic Source- Google Image & Aaj Tak

(यह आरिफ़, आरिफ़ के दोस्त जावेद और स्थानीय किसान डब्लू सिंह से की गई बातचीत पर आधारित है।)

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टीम- “कोसी की आस” ..©

 

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