सहरसा : सरकार से आम आदमियों के सवाल?

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रितेश : हन्नी
कोसी की आस@सहरसा।

आज मैं सरकार एवं विभाग से कई अहम सवाल कर रहा हूँ, यह सवाल सिर्फ मेरे नहीं बल्कि ना जाने कितने ऐसे पीड़ित व्यक्ति के हैं जो इस पीड़ा को सहन कर रहे है। आम व्यक्ति की भूमिका क्या सरकार बनाने भर की होती है? बांकी क्या सरकार अपनी मनमानी करें?

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  1. पहला सवाल : हम सरकार को टैक्स क्यूँ देते हैं ताकि सरकार मनमानी कर सके, सरकार द्वारा क्यूँ नहीं इन सारे टैक्सपेयर्स से राय ली जाती है, साथ ही पैसे का कहाँ सदुपयोग करें, दिन-रात मेहनत करके कोई उत्पादक कंपनी, व्यापारी, सर्विस होल्डर या अन्य जरिये से कमाई गयी अपनी गाढ़ी कमाई सरकार को टैक्स के रूप में पेय करती है, किन्तु सरकार द्वारा उन संस्थानों या उन योजनाओं में उन व्यक्तियों को लाभ दिया जाता है जिससे ना तो कोई बदलाव हो पाता है और ना ही राष्ट्र का भला हो पाता है।

  1. दूसरा सवाल : सारे विभाग इतना क्यूँ मनमानी कर रहे हैं, आखिर इनके सर के ऊपर किसका हाथ होता है? क्या इन सारे खेल में सरकार का हाथ होता है? चाहे बैंक हो, ब्लॉक हो या सरकारी हॉस्पिटल या अन्य कोई सरकारी संस्थान, क्या इन विभाग को आज इंटरनेट के दौड़ में भी डर नहीं लगता? बेखोफ होकर मनमानी करने वालों को आखिर कौन संरक्षण देता है? सरकारी हॉस्पिटल में गरीब व्यक्ति का इलाज नहीं हो पाता है, इलाज भी पैसे वाले व्यक्ति का ही हो पाता है क्यूँकि पैसे वाले परिवार से आने वाले मरीज के पहुँचने से पहले नेता जी का फ़ोन आ जाता है, किन्तु आम व गरीब व्यक्ति को देखता कौन है? बैंक उनको मदद नहीं करती जो बैंकिंग सिस्टम का अनुसरण करता हो, जो सरकार के सारे सिस्टम को फॉलो करता हो, बैंक उनको मदद नहीं करती है जो टैक्सपेयर हो, बैंक उनको मदद नहीं करती जो ईमानदारी से काम करता हो, बैंक उनको मदद करती है जिनका ना तो बैंकिंग सिस्टम से मतलब है और ना ही सरकार के किसी नियम कायदे से मतलब है आखिर इनके पीछे क्या सच्चाई है? आखिर विभागीय कर्मचारी अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर आम व्यक्ति को क्यूँ डराती है? यह सिर्फ बैंक नहीं बल्कि लगभग हर सरकारी संस्थानों का यही हश्र है। क्या इससे देश का भला होने वाला है?

  2. तीसरा सवाल : क्या सरकार जानबूझकर आंख बंद किये होती है? सरकार द्वारा सबसे ज्यादा पैसा स्वास्थ्य व शिक्षा विभाग पर खर्च की जाती है, किन्तु आम व्यक्ति को इन विभाग से क्या लाभ मिलता है? सरकारी स्कूल में सिर्फ एडमिशन करवाना बच्चों की मजबूरी होती है किंतु पढ़ाई प्राइवेट से करनी पड़ती है, 25 लाख की लागत से एक खूबसूरत प्राइवेट स्कूल का निर्माण हो जाता है किंतु 1 करोड़ के लागत से भी सरकारी स्कूल का निर्माण नहीं हो पाता है। क्यूँ इस बात की खबर सरकार को नहीं है, आज गरीब बच्चे पढ़ नहीं पाते हैं, प्राइवेट स्कूल में मोटी रकम से कहां दे पाएंगे, क्यूँ नहीं सरकार शिक्षा के प्रति उदार होती है? क्यूँ नहीं ठोस नीति अपनाई जाती है? सारे प्राइवेट स्कूल को या तो सेंट्रलाइज्ड किया जाये या बंद किया जाये, सरकारी स्कूल के समय में कोई प्राइवेट शिक्षण संस्थानों को खुलने का आदेश ना दिया जाए और मंत्री, नेता सबके बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़े। सरकार से अनुरोध है कि शैक्षणिक व्यवस्था पे उदारवादी व समतुल्यता वाली नीति अपनाएं, शिक्षा को व्यवसाय ना बनने दे, शिक्षा के आधार पर देश के लोगों का ना बांटे।

  3. चौथा सवाल : लोकतंत्र का तमाशा बनाना, क्या सारी कानून व्यवस्थाऐं आम पब्लिक के लिये होती है? नेता, प्रतिपक्ष, विपक्ष या बड़े ओहदे पे पदस्थापित इन लोगों के लिये कोई कानून नहीं होती है। बड़े-बड़े नेता अनर्गल बयानबाजी करते हैं, कभी सेना पे तो, कभी किसान पे सवाल करते हैं, कभी पक्ष के नेता बेवकूफी भरी बयान देते हैं, तो कभी विपक्ष के नेता बेवकूफी भरी बयानबाजी करते हैं, क्यूँ नही सरकार इस पर शक्ति से पेश आती है? क्या सरकार खुद को सुरक्षित रखने के लिए विपक्ष को झेलती है या विपक्ष भी तमाशा पब्लिक को दिखाने भर के लिए करती है। क्यूँ सरकार जवाब देने से बचती है? क्यूँ विपक्ष हर फैसले का विरोध करती है?क्या राजनीति में सिर्फ कुर्सी ही अंतिम सत्य है, बांकी सब छलावा मात्र है।।

वैसे ना जाने कितने ऐसे सवाल जेहन में चल रहा है किन्तु आज मैं इतने सवालों को आप सभी के माध्यम से सरकार तक पहुँचाऊँगा, मैं भी व्यक्तिगत रूप से कई बार अपमानित हुआ हूँ। अगर किसी सीनियर अधिकारी के पास अपनी बात रखता हूँ तो वो मुझे ऐसे ट्रीट करते हैं जैसे मैं कोई अपराधी हूँ और ये समस्याएं हर सामान्य व्यक्ति के साथ है। मैं अपनी बातों को सरकार तक पहुंचाने का पूरा प्रयास करूंगा, चाहे सोशल रेवोल्यूशन की जरूरत पड़े, चाहे सत्याग्रह करनी पड़े या विरोध मार्च निकालनी पड़े, अब कदम हमारे पीछे नहीं हटेंगें!!

जय हिंद :~

उपर्युक्त आलेख सहरसा के युवा कलमकार “स्नेह राजहंस” जिन्होंने अब तक जो पीड़ा ख़ुद महसूस किया तथा आये दिन समाज के आमजनमानस जो अहसास होता है, को बयां करते हुए “कोसी की आस टीम” को भेजा है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं)।

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