स्पेशल डेस्क
कोसी की आस@पटना।
जैसा शीर्षक है “आख़िर सवाल भारतीय धर्मनिरपेक्षता का है!” आज जिस प्रकार बात-बात पर धर्मनिरपेक्षता को लेकर आये दिन बखेड़ा किया जा रहा है, सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि धर्मनिरपेक्षता से अभिप्राय क्या है? तथा इसे भारतीय संविधान में कब शामिल किया गया?
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सामान्यतः सर्वधर्म सद्भाव से है अर्थात् सभी धर्मों को सामान मानते हुए, किसी भी प्रकार का भेदभाव न करना। भारत के मूल संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द को शामिल नहीं किया गया था, क्योंकि भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था। लेकिन भारत में रहने वाले सभी धर्मों के लोगों को समान अधिकार दिया गया अर्थात् व्यवहारिक एवं सैद्धांतिक तौर पर यह विशेषता संविधान की मूल भावना में रही है।
लेकिन स्पष्टतः १९७७ में इन्दिरा गांधी के शासनकाल में ४२वें संविधान संशोधन द्वारा भारतीय संविधान के प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष अर्थात् धर्मनिरपेक्ष शब्द को जोड़ा गया। ज्ञातव्य हो कि इसमें धर्मनिरपेक्ष के जगह पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है जो कि व्यापक रूप में हिन्दुत्व के अलग-अलग पंथ (sect) से उद्धृत है। भारत की पंथनिरपेक्षता इसके विविधतापूर्ण संस्कृति एवं धार्मिक स्वतंत्रता की देन है, जिसको समझने के लिए इतिहास में झांकना होगा। वैदिक धर्म की जटिलता एवं बाह्य-आडम्बर के विरुद्ध बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय के उदय से लेकर आजतक निरंतर यह प्रक्रिया जारी है।
भक्ति आंदोलन के दौर में भी मूर्ति पूजा का विरोध कर निराकार ईश्वर की भक्ति पर बल दिया गया, जिसके फलस्वरूप कबीर एवं सिख पंथ का उदय हुआ। इसी प्रकार हिन्दू धर्म के अंतर्गत अनेक पंथों का उदय हुआ। हिन्दू धर्म ने परिवर्तन के हर बिन्दु को आत्मसात किया गया और यही वजह है कि जहाँ एक तरफ राम को चाहते हैं, तो दूसरी तरफ कुछ रावण की भी पूजा करते हैं, फिर भी आप हिन्दू हैं। आप किसी ईश्वर को नहीं मानते, फिर भी आप कबीर पंथी हो सकते हैं।
और इन्हीं सब वजहों से हम शान से अनेकाता में एकता की बात भारत के संदर्भ में करते हैं। लाख विषमता एवं विरोधाभास के बाद भी आज हम एक हैं तथा सभी पंथों का सम्मान करते आ रहे हैं। जिसे समग्र रूप से अद्भुत भारत, अविश्वसनीय भारत और अकल्पनीय भारत कहा जाता है। लेकिन वहीं आप अन्य धर्मों में इस प्रकार की विशेषता का अभाव पाएंगे।
आजादी के बाद भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण की ऐसी हवा चली की वोट बैंक के चक्कर में तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के चैंपियन कपटी नेताओं ने देश को कमजोर किया और अभी भी सांप्रदायिकता के नाम पर अपनी रोटी शेक रहे हैं। इसी का परिणाम हुआ कि राष्ट्रगान को गैर-इस्लामिक, राष्ट्रध्वज तक के सम्मान को गैर-इस्लामिक करार दिया जाने लगा। हद तो तब हो गई जब भूतपूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी जी ने सार्वजनिक रूप से इसे अमलीजामा पहनाया। विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहाँ इस तरह के व्यवहार की अनुमति हो। चरमपंथी विचारधारा किसी भी सभ्य समाज के निर्माण के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा होती है।
लेकिन भारत देश में अल्पसंख्यक के नाम पर हर गुनाह की माफी है। यही कारण रहा कि मुस्लिम समुदाय द्वारा परिवार नियोजन तक को गैर इस्लामिक करार दिया गया। विगत वर्षों में जनसंख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी का यह प्रमुख कारण है। ध्यातव्य हो कि दक्षिण एशिया में परिवार नियोजन एवं जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम सबसे सफल बांग्लादेश में रहा है, जो एक इस्लामिक देश है। अर्थात् भारत के संदर्भ में इनके नीयत एवं धार्मिक सोच को समझा जा सकता है।
क्या सच में हम पंथनिरपेक्ष हैं? या इसे वोट बैंक के हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा गया है? पंथनिरपेक्षता धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के विशेषाधिकार को अस्वीकार करता है। तो मुस्लिम पर्सनल लॉ एवं धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा पंथनिरपेक्षता की मूल भावना की अवहेलना नहीं है।
अब समय आ गया है इस पर गंभीरता से विचार हो तथा तमाम कमियों को दूर किया जाए। जाहिर सी बात है कि धर्मनिरपेक्षता एक आदर्शवादी विचारधारा है जिसे आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था की प्रमुख विशिष्टता मानी जाती है, लेकिन इसे सही तरीके से लागू करने की आवश्यकता है।
उपरोक्त लेख कोसी की आस टीम को भारत सरकार के रेल मंत्रालय में कार्यरत प्रतापगंज, सुपौल के “विजेन्द्र जी” ने भेजा है।
(यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)।