अभिप्राय:- भाषा शब्द संस्कृत की ‘भाष्’ धातु से निर्मित है। भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते हैं और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं। अर्थात मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं, जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ अन्य लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या क्षेत्र की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे क्षेत्रों या समाजों की भाषा उन्हें नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग-अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाओं के भी अनेक वर्ग-उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी-बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथवा बोलियों को रखा है।
परिभाषा:- भाषा को प्राचीन काल से ही परिभाषित करने की कोशिश की जाती रही है। इसकी कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-
- (१)भाषा शब्द संस्कृत के ‘भाष्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना अर्थात् भाषा वह है जिसे बोला जाय।
- (2)प्लेटो ने सोफिस्ट में विचार और भाषा के संबंध में लिखते हुए कहा है कि विचार और भाषआ में थोड़ा ही अंतर है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है लेकिन जब वही विचार ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है, तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।
- (3) स्वीट के अनुसार ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।
- (4) वेंद्रीय कहते हैं कि भाषा एक तरह का चिह्न है। चिह्न से आशय उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मानव अपना विचार दूसरों के सामने प्रकट करता है। ये प्रतीक कई प्रकार के होते हैं जैसे नेत्रग्राह्य, श्रोत्र ग्राह्य और स्पर्श ग्राह्य। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है।
- (5) ब्लाक तथा ट्रेगर भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तंत्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य और सांस्कृतिक साझीदार के रूप में संपर्क एवं संप्रेषण करते हैं।
भाषा की प्रकृति
मानव स्वभाव की तरह भाषा का भी अपना स्वभाव होता है, उसका यह स्वभाव प्रकृति, भौगोलिक परिवेश, जीवन पद्धति, ऐतिहासिक घटनाक्रम, सामाजिक सांस्कृतिक और विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले विकास आदि के अनुरूप बनता और ढलता है।
भाषा की प्रकृति निम्नलिखित है:-
सामाजिकता
- भाषा के लिए समाज का होना आवश्यक है।
- समाज के बिना भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती है, अतः भाषा एक सामाजिक संस्था है।
अर्जन
- भाषा संस्कार रूप में ग्रहण करते हैं।
- व्यक्ति अनुकरण, व्यवहार और अभ्यास से भाषा को ग्रहण करता है।
परिवर्तनशीलता
- भाषण निरंतर परिवर्तनशील रहती है।
- कुछ परिवर्तन प्रयोग से तथा कुछ बाहरी प्रभाव के कारण आते हैं।
गतिशीलता
- भाषा का कोई अंतिम रूप नहीं है, वह सदा गतिमान रहकर विकास करती है।
- भाषा को “बहता नीर” कहा गया है।
कठिनता से सरलता की और
- भाषा कठिनता से सरलता की ओर चलती है।
- कठिन लगने वाली ध्वनियाँ भाषाओं में कम होती जाती है।
- आदमी आसानी चाहता है कम-से-कम शब्दों में अपने विचारों को अभिव्यक्त करना चाहता है।
भौगोलिक तथा ऐतिहासिक सीमा
- प्रत्येक भाषा की अपनी भौगोलिक और ऐतिहासिक सीमा होती है।
- प्रत्येक भाषा किसी विशेष काल से आरंभ होकर इतिहास के निश्चित काल तक व्यवहार में रहती है।
निजी संरचना
- प्रत्येक भाषा की अपनी संरचना अलग-अलग होती है।
- लिंग, वचन, कारक के अतिरिक्त वाक्य गठन आदि क्षेत्रों में हर एक भाषा की अपनी निजी विशेषता होती है।
स्थूलता से स्वच्छता की ओर
- भाषा में आरंभ में स्थूल से सूक्ष्म भाव को व्यक्त करने की क्षमता नहीं होती है।
- आवश्यकता तथा प्रयोग के द्वारा उसमें सूक्ष्म भाव और विचार अभिव्यक्त का गुण आता चला जाता है।