एक शहर जिसका नाम सुनते ही जुबान रसीली और मीठी हो जाती है, हम बात कर रहे हैं न सिर्फ बिहार में बल्कि समूचे भारत वर्ष में शाही लीची और मीठे आमों के लिए मशहूर मुजफ्फरपुर की। इसी मुजफ्फरपुर का एक रिहायशी इलाका है जिसका नाम है “भगवानपुर” यह जगह कुछ खास इसलिए है कि यहाँ पर एक खूबसूरत “शिक्षा का मंदिर” जिसका नाम है “शुभम दिव्यांग विकास संस्थान” जो किसी की घनघोर तपस्या और साधना का परिणाम या नतीजा है।
एक अंग से हम जरा, तंग क्या हुये,
तो मान लिया तुमने कि हम अपंग हो गए,
ये जो शब्द अपंग है,
यह सिर्फ हम पर एक तंज है,
पर हमें ना कोई मलाल,
न किसी से रंज है।
दिव्यांगों को डिसेबल बता अक्सर हमलोगों के परिवार और समाज के द्वारा उनकी उपेक्षा की जाती है। अगर सच कहूँ तो वे लोग डिसएबल नहीं है, बल्कि डिफरेंटली एबल्ड लोग हैं, जिनकी वास्तविक ताकत का सही अंदाजा किसी को नहीं है। चाहे एवरेस्ट पर फतह करने वाली अरुणा सिन्हा या महान खगोलविद स्टीफन हॉकिंस या नृत्यांगना सुधा चंद्रन या फिर संगीतकार रविंद्र जैन, इन महान हस्तियों की तरह सैकड़ों सफल लोगों की लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने अपनी विकलांगता के बावजूद अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की और दुनिया को साबित कर दिखाया कि सिर्फ अंग, भंग हो जाने से कोई अपंग और बेकार नहीं होते।
“कोसी की आस” टीम अपने प्रेरक कहानी शृंखला की 21वीं कड़ी में आपका परिचय एक ऐसी दिव्यांग महिला से कराने जा रही है जो जन्म से ही दृष्टिहीन थी पर खामोश अंधेरों से शुरू हुई उनकी ये सुनहरी दास्तान जिसकी वजह से आज देश के हजारों-लाखों विकलांगों के लिए वह उम्मीद की किरण बन चुकी है। आज से तकरीबन 26 साल पहले बिहार के मुजफ्फरपुर जिले की धरती से एक दिव्यांग महिला ने अपने कर्मों के प्रताप और बुलंद इरादों के बदौलत अपनी विकलांगता को हराकर चारों खाने चित कर दिया। आइए मिलते हैं मुजफ्फरपुर की इस जीती-जागती धरोहर डॉक्टर संगीता अग्रवाल और जानते हैं उनकी पूरी कहानी।
भले ही आंखों में रोशनी ना थी किन्तु मन की दिव्य और दूर-दृष्टि से दिव्यांगों के बीच निशुल्क शिक्षा का अलख जगाने वाली डॉक्टर संगीता अग्रवाल ने हजारों मूक-बधिर और दृष्टिहीन बच्चों का भविष्य सँवारने का काम किया है और आज भी कर रही हैं।
डॉक्टर संगीता अग्रवाल से जब उनके अब तक के संघर्ष यात्रा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने जो बताया उन्हीं के शब्दों में सुनते हैं “मैं जन्म से ही देख नहीं सकती हूँ। जहाँ तक मुझे याद है, जब मैं चार-पांच साल की थी, तभी से मुझे पढ़ने में बहुत रुचि थी, बहुत पढ़ना चाहती थी, मेरे आस-पड़ोस के बच्चे जब स्कूल जाते थे, मैं नहीं जा पाती थी तो मन में बहुत ग्लानि होती थी। बचपन की मेरी इस इच्छा को देखकर मेरे पिताजी ने बहुत प्रयास कर दिल्ली के एक विद्यालय में मेरा नामांकन करा दिया। मैं वहाँ 1971 से लेकर 1992 तक रही। लगभग 21 साल वहाँ रहकर मैंने क्लास वन से एम. फिल. पीएचडी तक की पढ़ाई संस्कृत विषय से दिल्ली विश्वविद्यालय से की। 1992 में जब मेरी पीएचडी पूरी हो गई और 1993 में मुझे कन्वोकेशन में डिग्री प्राप्त हुई। पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बाद मैंने निर्णय किया कि मैं वापस अपने शहर मुजफ्फरपुर में जाऊँगी और बिहार में अपने शहर मुजफ्फरपुर आ गई और अपनी जन्मस्थली मुजफ्फरपुर को ही कर्मस्थली बनाने का निर्णय किया। बचपन से ही मैंने दो लक्ष्य बनाकर रखे थे, पहला लक्ष्य आत्मनिर्भर होना और दूसरा मेरा लक्ष्य था कि मैं अपने स्तर से दिव्यांग जनों के लिए कुछ करने को सोची थी। पहला लक्ष्य तत्काल पूरा होते नहीं दिख रहा था क्योंकि नौकरी की संभावना नहीं दिख रही थी। इसलिए मैंने अपने दूसरे लक्ष्य की ओर बढ़ते हुये, बगैर समय गमाये 1993 में “शुभम विकलांग विकास संस्थान” की स्थापना की।
“शुभम विकलांग विकास संस्थान” संस्थान का जो मूल मंत्र और लोगों जो हमने बनाया, वह इसका प्रतीक वाक्य है “आत्म निर्भरत्वं शुभम” मेरा यह मानना है कि दिव्यांग जनों का अगर कुछ कल्याण या भलाई करना है, तो वह तभी हो सकती है, जब उन्हें आत्मनिर्भर बना दिया जाए। तब से आज लगभग 26 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और हमने अपने संस्थान के माध्यम से हजारों बच्चों को न सिर्फ क्लास 01 से 10वीं तक की शिक्षा देने का कार्य किया बल्कि दसवीं के बाद उन्हें हम दिल्ली आदि जगहों पर भेजकर महाविद्यालय में नामांकन करवाते हैं क्योंकि बिहार में अभी भी दृष्टि-बाधित बच्चों के लिए शिक्षा की वैसी सुविधा नहीं है जैसे कि बड़े शहरों में होता है। मुझे लगता है कि इन बच्चों को अच्छी-से-अच्छी शिक्षा मिले और आगे चलकर इनका भविष्य उज्जवल हो इसलिए 10वीं के बाद उन्हें मुजफ्फरपुर में रहकर पढ़ने की सलाह नहीं देते हैं। साथ ही वे बच्चे आगे के जीवन में अपने लिए कैसे बेहतर रास्ता बना सकते हैं, कौन सी पढ़ाई उनके लिए उपयोगी होगी, उच्च शिक्षा कैसे प्राप्त कर सकते हैं और अच्छे जॉब कैसे मिलेंगे इस तरह की तमाम गाइडलाइन हमारी संस्थान उन्हें बाद में भी उपलब्ध कराते रहती है।
लगभग 1 एकड़ में फैले अपने फैमिली के फार्म हाउस को “शुभम विकलांग विकास संस्थान” के रूप में तब्दील करने वाली डॉक्टर संगीता अग्रवाल ने जब लगभग 26 साल पहले दिव्यांगों के भलाई के लिए काम करना शुरू किया तो उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। गांव-गांव जाकर दिव्यांग बच्चों को ना सिर्फ तलाश करना बल्कि लोगों को उनके बच्चे को “शुभम विकलांग विकास संस्थान” भेजने के लिए मनाया और जागरूक किया, यह काम बेहद मुश्किल था क्योंकि किसी भी बच्चे के संबंध में उसके माँ-बाप का विश्वास पाना आसान नहीं था। “शुभम विकलांग विकास संस्थान” के परिसर में आवासीय सुविधाएं भी है। संस्थान में अभी लगभग 80 बच्चे आवासीय सुविधा का लाभ उठाते हुये पढ़ रहे हैं जिनकी पढ़ाई के साथ-साथ देखरेख और खान-पान की जिम्मेदारी संस्थान के ऊपर ही है। संस्थान में पढ़ने, रहने और खाने तक की सभी सुविधाएं निःशुल्क है। प्रतिदिन लगभग 100 लोगों का खाना बनता है, खाना बनाने के लिए कुशल कारीगर भी हैं, जो बच्चों के लिए रोजाना पौष्टिक आहार तैयार करते हैं।
अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित डॉक्टर संगीता ने शादी तक नहीं की और अपना सारा जीवन दिव्यांग बच्चों के मदद और संस्थान की देखरेख के लिए समर्पित कर दिया। 1961 में पैदा हुई डॉक्टर संगीता अग्रवाल देश के प्रथम दृष्टिहीन महिला हैं जिन्होंने संस्कृत से पीएचडी किया और यही नहीं 1996 में बीपीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण कर मुजफ्फरपुर के एल एस कॉलेज में लेक्चरर बनी और अभी भी वहाँ अपना योगदान दे रही हैं। डॉक्टर संगीता के प्रयासों के कारण ही बिहार और झारखंड के एकमात्र ब्रेल लिपि प्रेस के लिए सरकार ने मुफ्त मशीनें दी जो 1 घंटे में लगभग 4000 पेज छाप सकती है। इस प्रेस के लिए जमीन और भवन डॉक्टर संगीता ने अपने “शुभम विकलांग विकास संस्थान” के अंदर ही उपलब्ध कराया। राज्य की सभी ब्रेल लिपि की किताबें और पाठ्यक्रम सामग्री यहीं से छपती है। पूरे देश में केवल 10 जगहों पर ऐसी किताबें छपती हैं जिनमें से एक प्रेस मुजफ्फरपुर के “शुभम विकलांग विकास संस्थान” में है।
“डॉक्टर संगीता अग्रवाल” की सफलता की यह कहानी समाज के उन तमाम लोगों के उस सोच को करारा जबाब है जो दिव्यांग-जनों को कम आँकते हैं या उनकी उपेक्षा करते हैं। साथ ही अपनी सफलता के लिए प्रयासरत सभी युवाओं के लिए एक बेहतरीन प्रेरित करने वाली सच्ची कहानी भी है। “डॉक्टर अग्रवाल” के लिए एक पंक्ति अर्ज़ करना चाहूँगा कि
“इतर से कपड़ों का महकाना, कोई बड़ी बात नहीं है,
मज़ा तो तब है, जब आपके किरदार से खुशबू आये॥”
(यह “शुभम विकलांग विकास संस्थान” जाने वाले वाले और वहाँ की प्रमुख “डॉक्टर संगीता अग्रवाल” से “कोसी की आस” टीम के सदस्य के बातचीत पर आधारित है।)
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टीम- “कोसी की आस” ..©