आज जहाँ युवाओं में महानगरों की चमक-धमक के साथ जीवन जीने की चाहत जोड़ पकड़ रही है या यूँ कहें कि जोड़ पकड़ ली है, वहीं अपने जन्मभूमि से विमुख होने वाले इस युग में भी, हमारे कई भाई-बहन अब भी सकून की ख़ोज में या उस मिट्टी जिसमें लिपट कर हम बड़े हुये या फिर उस समाज, जिसने बचपन में हमें जीना सिखाया, को कुछ लौटने की हसरत रखते हैं।
“कोसी की आस” टीम अपने प्रेरक कहानी शृंखला की 25वीं कड़ी में आप सबके के सामने उत्तराखंड की दो ऐसी ही बेटियों की कहानी प्रस्तुत करने जा रही है, जिसने अपनी अच्छी ख़ासी नौकरी और शहरों की तथाकथित आरामदायक जीवन शैली को छोड़ उत्तराखंड के सुदूर गाँव जाकर, जैविक खेती से किसानों की जिंदगी बदल रही है।
आज के युवा नौकरी और शहरी जीवनशैली से प्रभावित होकर निरंतर शहर की ओर पलायन कर रहें हैं, आए दिन पलायन के ख़बर से अखबार हमेशा पटा रहता है और कभी-कभी तो कुछ ख़बरें न सिर्फ चौंकाती है बल्कि डराती भी है। उत्तराखंड भी इस तरह के संकट से अछूता नहीं है और निरंतर पलायन से कई गाँवों में केवल बुजुर्ग ही बचे हैं। ऐसे हालात में यदि यह कहा जाय कि आज भी कुछ युवा हैं जो इन शहरों की चमक-धमक, तमाम सुख-सुविधा और मोटी पगार वाली नौकरी छोड़ अभी भी बहुतरे सुविधाओं से वंचित गाँव की ओर रुख कर गाँव को प्रगति के पथ पर तेज रफ्तार से आगे ले जाने गाँव वापस आ रहें है, तो यह सहसा आश्चर्यचकित करने वाला लगता है।
उत्तराखंड की दो बेटी कुशिका शर्मा और कनिका शर्मा ने अपनी अच्छी ख़ासी मोटी तनख़्वाह की नौकरी छोड़ अपने गाँव वापस आ गई। इन दोनों बहनों ने दिल्ली जैसे महानगर की सुख-सुविधाएं न सिर्फ सकून के लिए बल्कि गाँव के किसानों के साथ-साथ पहाड़ों को नए जीवन देने के लिए चुनी। जी हाँ कुशिका और कनिका महानगरों में रहकर अपनी जिंदगी बड़े आराम से गुजार रही थीं, लेकिन उन्होंने जो अनुभव किया कि भागदौड़ की इस ज़िंदगी में तमाम तरह के सुख-सुविधा वाले यंत्र तो मिल गए लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण था “सुकून” वो तो बचपन में पहाड़ की वादियों में ही छोड़ आई थी। दोनों बहनों ने तय किया कि वो उत्तराखंड में पहारियों के बीच बसे अपने खूबसूरत गाँव मुक्तेश्वर में जाकर गाँव की प्रगति में अपना योगदान देंगी। परिवार का साथ मिला और उन्होंने गाँव जाकर ऑर्गेनिक खेती के प्रति जागरूकता लाने का तरीका अपनाया। मुक्तेश्वर जाकर दोनों बहनों ने ‘दयो – द ओर्गानिक विलेज रिसॉर्ट‘ की स्थापना की, साथ ही स्थानीय लोगों को जैविक खेती के प्रति जागरूक करने लगी। दोनों बहनों ने अपने इस नए कार्यक्षेत्र को विस्तारित करने की योजना बनाई ताकि उत्तराखंड के अन्य गाँवों में भी किसानों को जैविक खेती के प्रति जागरूक किया जा सके। और कृषि उत्पादों को बेचने के लिये सप्लाई चेन की व्यवस्था की जाय ताकि गाँव में उत्पादित फसल और सब्जी की अच्छी कीमत किसानों को मिल सके।
कुशिका और कनिका की स्कूली शिक्षा उत्तराखंड के नैनीताल और रानीखेत में हुई। स्कूली शिक्षा पूर्ण होने के बाद कुशिका ने उच्च शिक्षा के रूप में एम.बी.ए कर चार साल गुड़गांव की एक मल्टी नेशनल कंपनी में बतौर सीनियर रिसर्च एनालिस्ट के रूप में कार्य किया, तो वहीं उनकी बहन कनिका को दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया से मास्टर डिग्री हासिल करने के बाद हैदराबाद में आंत्रप्रेन्योरशिप में स्कॉलरशिप मिली। अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में दोनों बहनों को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ काम करने का अवसर मिला। लेकिन पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में दोनों बहनों को नैनीताल में रहने वाले अपने परिवार से दूर रहना पड़ता था, लेकिन मौका मिलते ही दोनों परिवार से मिलने नैनीताल पहुँच जया करती। इस दौरान उन्होंने अनुभव किया कि अपने बच्चों को अपने पास पाकर उनके पिता को कितना सुकून मिलता है और जैसे ही दोनों बहनों के पुनः अपने काम पर लौटने का दिन करीब आता, पिता की उदासी बढ़ने लगती, दोनों बहनों को भी पिता से दूर जाना अच्छा नही लगता, किन्तु नौकरी के लिए जरूरी था।
कुशिका बताती हैं कि “हमारे पास सब कुछ था, लेकिन जिंदगी में सुकून की घोर कमी थी और वो सुकून हमें पहाड़ों में मिलता था। इसलिए हम दोनों बहन ने अपनी नौकरी छोड़कर प्रकृति की गोद में ही कुछ करने का निर्णय लिया। और हमने तय किया कि हम स्थानीय लोगों के साथ मिलकर ऑर्गेनिक खेती करेंगे।” और हम दोनों बहन शांतिपूर्ण और स्वच्छ वातावरण से भरपूर अपने गाँव मुक्तेश्वर आ गए। शुरुआत में हमें काफी मुश्किलों का सामना करना क्योंकि वहाँ के लोगों के लिए हमारा विचार बिलकुल नया था, जिस पर उन्हें विश्वास दिलाना आसान नहीं था। मुक्तेश्वर में रहकर हमने कुछ दिनों तक वहाँ की खेती योग्य भूमि और किसानों की जानकारी प्राप्त किए। गाँव की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित थी लेकिन स्थानीय लोगों में कृषि उत्पादन बढ़ाने को लेकर जागरूकता का अभाव था और ना ही वहाँ के किसानों को जैविक खेती के बारे में जानकारी थी और न ही उनका मार्गदर्शन करने वाला कोई था।
आगे बताती हैं कि शहरों में बढ़ते जैविक उत्पादों की मांग को ध्यान में रखते हुये ही हमने अपने गाँव में जैविक खेती के विकास के संकल्प के साथ किसानों से बात करने से पहले स्वयं जैविक खेती और जीरो बजट खेती का प्रशिक्षण लिया। इस प्रशिक्षण के दौरान हमने दक्षिण भारत व गुजरात के साथ-साथ कई राज्यों का दौरा किया। पूर्ण प्रशिक्षण के उपरांत वर्ष 2014 में हमने मुक्तेश्वर में 25 एकड़ जमीन पर खेती का कार्य शुरू किया। साथ ही अन्य लोगों का रुख गाँवों की ओर करने हेतु ‘दयो – द ओर्गानिक विलेज रिसोर्ट’ की स्थापना की।
“दयो – द ऑर्गेनिक रिसोर्ट” के बारे में बताते हुए कनिका कहती हैं कि शहरों में रहने के दौरान हमने महसूस किया कि वहाँ रहने वाले लोग कुछ समय प्रकृति के करीब भी रहना चाहते हैं। हमने सोचा कि अगर हम लोगों से यह कहेंगे कि आप भी यहाँ आकर खेती करो, तो शायद ही कोई तैयार होगा। लेकिन जब हम उनसे यह कहेंगे कि आप यहाँ आकर कुछ दिन छुट्टियाँ मनाइये, तो कोई भी इसके लिये तैयार हो सकता है और गाँवों में आना भी पसंद करेगा।“
हम दोनों ने इस बात पर भी विशेष ध्यान दिया कि जब भी कोई शहरों से यहाँ छुट्टियाँ मनाने के लिये आये तो उसे यहाँ “दयो” शब्द जो संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है “स्वर्ग“ वैसी ही अनुभूति हो और उन्हें गाँव में रहकर कुछ ऐसा करने को मिले जो उनके लिए बिल्कुल नया और स्वास्थ्यवर्धक हो। इसलिए हमने अपने ऑर्गेनिक विलेज रिसोर्ट के नाम “दयो – द ऑर्गेनिक रिसोर्ट” रखा। रिसॉर्ट प्रारम्भ होने के साथ ही दोनों बहनों को सैलानियों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली। 5 कमरों वाले मुक्तेश्वर के इस रिसोर्ट में कमरों का नामकरण भी संस्कृत भाषा से लिए गए प्रकृति के पांच तत्वों पर आधारित है। रिसोर्ट के कमरो के नाम है उर्वी, इरा, विहा, अर्क और व्योमन। यह अपने आप में अनोखा है।
यहाँ आने वाले सैलानियों को यह सुविधा दी जाती है कि वो फॉर्म में जाकर अपने हाथों से, अपनी पसंद की सब्जियों को तोड़ सकते हैं और रिसॉर्ट के शेफ को देकर मनपसंद खाना बनवा सकते हैं। उनके रिसॉर्ट में इस समय करीब 20 लोग काम कर रहे हैं। रिसोर्ट की बाकी जमीन पर खेती की जाती है। इसके आलवे दोनो बहने गाँव के बच्चों को शिक्षा के प्रति भी जागरूक कर रही है।
पर्यटन विकास और आजीविका के अवसर उपलब्ध कराने को ध्यान में रखते हुए ही कुशिका और कनिका ने सबसे पहले स्थानीय लोगों को हॉस्पिटैलिटी का प्रशिक्षण दिया। जिसका परिणाम यह है कि आज खेती से लेकर किचन तक का सारा काम स्थानीय लोग स्वयं संभाल रहे हैं और उन्हें आर्थिक सहायता भी प्राप्त हो रही है। दोनों बहनें यहाँ रिसॉर्ट में पैदा होने वाले जैविक कृषि उत्पादों को बेचने के लिए सप्लाई चेन बनाने का विचार कर रही है। इसी विचार को प्रयोग में लाते हुए उन्होंने इस सीजन में अपने रिसॉर्ट की सब्जियों और फलों को मंडियों में भी बेचना प्रारम्भ किया है।
आज कुशिका और कनिका ना केवल अपने इस काम से बहुत खुश और उत्साहित हैं बल्कि आसपास रहने वाले ग्रामीण लोगों को रोजगार उपलब्ध करा पलायन की समस्या को हल करने का भी काम किया है। जैविक खेती के प्रति भी जागरूक कर दोनों बहनों ने गाँव के लोगों को एक दिशा प्रदान करने का कार्य किया है।
कुशिका और कनिका आज न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि समूचे भारतवर्ष के युवाओं के प्रेरणास्रोत बन गई हैं, उन्होंने अपने इस कार्य के माध्यम से यह साबित कर दिखाया है कि जीवन सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं है बल्कि उससे कहीं खूबसूरत ज़िंदगी गाँव के उन प्रकृतिक वातावरण के बीच है, जहाँ तक काल्पनिक सुख-सुविधाओं की बात है, तो हम सलीके से चाहें और गाँव वालों के साथ मिलकर काम करें तो हम काल्पनिक सुख-सुविधाओं के बजाय स्थायी सुख-सुविधाओं के साथ प्रकृति के गोद में चैन की नींद ले सकते हैं। “कोसी की आस” टीम अपने इस सच्ची और प्रेरक कहानी के माध्यम से युवाओं का आह्वान करती है कि यदि आपके मन में भी कुछ नए खयाल चल रहे हैं, जो समाज की तरक़्क़ी में अपना योगदान कर सके तो देर मत करें, उसे अमलीजामा पहनाने का कार्य प्रारंभ कर दें।
Pic Source- Google Image
(यह “दयो – द ऑर्गेनिक रिसोर्ट”, कनिका और कुशिका के टीम से कोसी की आस टीम की बातचीत पर आधारित है।)
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टीम- “कोसी की आस” ..©