स्पेशल डेस्क
कोसी की आस@पटना
नागरिकता संशोधन विधेयक जो अब एक कानून का रूप ले चुका है, विवादों के कारण पिछले कुछ दिनों से चर्चा के केंद्र बना हुआ है। लेखक द्वारा इस विषय पर जनता के बीच फैले भ्रम एवं आशंकाओं को इस लेख के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया गया है। सबसे पहले हम सभी के लिए यह जानना जरूरी है कि आखिर यह अधिनियम है क्या?
यह बिल वैसे अल्पसंख्यकों के लिए लाया गया है जो किसी-न-किसी रूप में पाकिस्तान, अफगानिस्तान एवं बांग्लादेश में धार्मिक प्रताड़ना के शिकार रहें हैं और पलायन कर शरणार्थी के रूप से भारत में वर्षों से रह रहें हैं। इस कानून के तहत मुख्यरूप से हिन्दू, बोद्ध, जैन, सिख, पारसी, यहूदी एवं ईसाई शरणार्थियों को “नागरिकता कानून १९५५” में संशोधन कर भारत की नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है। इस नागरिकता कानून से मुस्लिमों को इसलिए अलग रखा गया है क्योंकि सरकार का मानना है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान एवं बांग्लादेश तीनों इस्लामिक राष्ट्र है, अतः वहाँ मुस्लिमों के साथ धार्मिक प्रताड़ना हो एवं इस कारण वे भारत आए ऐसा सम्भव नहीं है।
विवाद भी मुस्लिमों को अलग रखने जैसे बिन्दु को लेकर आरंभ हुआ है, जो थमने का नाम नहीं ले रहा है। चूंकि पूर्वोत्तर भारत में लाखों की संख्या में बांग्लादेशी नागरिक बेहतर जीवन एवं रोजगार की तलाश में या धार्मिक उत्पीड़न के कारण अवैध रूप से भारत में प्रवेश कर वर्षों से यहाँ रह रहे हैं, जिनमें से बहुतों ने येन-केन प्रकारेण यहाँ का आधार कार्ड एवं राशन कार्ड आदि भी बनवा लिया है। उन अवैध बांग्लादेशी नागरिक में रोहिंग्या तथा हिन्दू शरणार्थी भी शामिल है।
भारत सरकार अवैध प्रवासियों की बढ़ती संख्या को लेकर काफी चिंतित है। स्थानीय लोगों में भी इसको लेकर काफी आक्रोश है। असम, प.बंगाल एवं बिहार में अवैध प्रवासियों की संख्या सर्वाधिक मानी जा रही है। नागरिकता कानून के माध्यम से गैर-मुस्लिमों को नागरिकता दिये जाने का प्रावधान किया गया है। लेकिन मुस्लिमों को इससे बाहर किये जाने को लेकर बहुत से विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं। विरोध के और भी कई बिन्दु हैं, जैसे असम के लोगों द्वारा इस कानून के विरोध के पीछे स्थानीय कारण है, जिसमें आर्थिक एवं सांस्कृतिक पहलू है। बाहरी लोगों के कारण उनका अपना क्षेत्रीय अस्मिता प्रभावित होने के साथ रोजगार एवं संसाधनों के बंटवारे का डर है। प.बंगाल में ममता सरकार अपना वोट बैंक खोने के भय से इसका विरोध कर रही है, क्योंकि कांग्रेस एवं वामपंथी सरकारों के समय वोट बैंक मजबूत करने के लिए व्यापक पैमाने पर अवैध बांग्लादेशियों को नागरिकता प्रदान किया गया था।
ममता बनर्जी ने सत्ता में आने के बाद उसी व्यवस्था को आगे बढ़ाया। बिहार के सीमांचल में पिछले दशक में अल्पसंख्यकों की आबादी में बेतहाशा वृद्धि हुई है। अब यह क्षेत्र जनांकिकीय असंतुलन का शिकार हो गई है, जिसके कारण यह क्षेत्र राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टि से भी अत्यंत संवेदनशील हो गई है। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के विरोध का मूल कारण अल्पसंख्यकों की सहानुभूति हासिल करने की है, जबकि नागरिकता संशोधन विधेयक विदेशी नागरिकों को भारतीय नागरिकता देने के संदर्भ में है अर्थात भारतीय नागरिकों से इसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।
आम जनता में गलतफहमी की वजह कैब और एन आर सी को साथ जोड़कर देखने के कारण उत्पन्न हुई है। जिसके संबंध में स्पष्टीकरण सरकार द्वारा दी जा रही है। सरकार जहाँ इसे ऐतिहासिक मान रही है वहीं विपक्ष इसे विभेदकारी कह रही है। सरकार का तर्क है कि धार्मिक यातना एवं उत्पीड़न के कारण पाकिस्तान में हिन्दुओं की संख्या २३ से ३ प्रतिशत तथा बांग्लादेश में ३० से ७ प्रतिशत पर पहुँच चुकी है और कमोवेश ऐसी ही स्थिति अफगानिस्तान की भी है।
भारत हिन्दुओं के साथ सिखों का स्वाभाविक जन्म स्थली है, लिहाजा भारत का संविधान हमें इस तरह के संशोधन की इजाजत देता है तथा यह उच्चतम न्यायालय के पूर्व के निर्णयों के अनुरूप है। विवाद चाहे जो हो, लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसा एवं अराजकता का कोई स्थान नहीं है। सभी पक्षों को राजनीति के बजाय राष्ट्रीय हित में लोकतांत्रिक मूल्यों की सीमा में इसका हल ढूंढ़ना चाहिए। डर एवं अफवाह फैला कर और बंधक बनाकर लोकतांत्रिक माँग नहीं रखी जा सकती।
उपर्युक्त लेख लिखने वाले “विजेन्द्र जी” जो प्रतापगंज,सुपौल से ताल्लुकात रखते हैं और भारत सरकार के रेल विभाग में कार्यरत हैं तथा यह उनका व्यक्तिगत विचार है।