नागरिकता कानून की सार्थकता बनाम विरोध प्रदर्शन – विजेन्द्र।

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स्पेशल डेस्क
कोसी की आस@पटना

जब से भारत सरकार द्वारा नागरिकता कानून लाया गया है, विरोध प्रर्दशन, हिंसा, आगजनी एवं सार्वजनिक व निजी सम्पत्ति को विध्वंस करने की घटनाएं रूकने का नाम नहीं ले रही है।
क्या सच में यह कानून इतना अन्यायपूर्ण है?
क्या यह गुस्सा स्वाभाविक है या राजनीति से प्रेरित है?

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जैसे बहुतेरे सवाल हमारी तरह आपके मन में भी चल रहा है। कानूनी और राजनैतिक मामलों के विशेषज्ञों का मानना है कि इस विरोध प्रर्दशन के बहुकोणीय स्वरूप हैं, जो पब्लिक डोमेन में सर्वविदित हैं, लेकिन सार्वजनिक मंच से इसे कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं है। भारत अवैध प्रवासियों की समस्या से बुरी तरह प्रभावित है। देश के अन्दर लगभग ५ करोड़ लोग गैर-कानूनी रूप से भारत में रह रहें हैं जो अब देश के संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं।

उक्त लगभग ५ करोड़ प्रवासियों को तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले राजनीति दल तथा समाजवाद का चोला पहनकर वंशवादी एवं जातिवादी राजनीति करने वाले दल का साथ प्राप्त है और उन दलों को भारत के तथाकथित अल्पसंख्यक माने जाने वाले मुस्लिम समुदाय का भावनात्मक रूप से साथ मिल रहा है। लोकतंत्र में संख्याबल का महत्व है और यह समुदाय अपना संख्याबल बढ़ाकर अपनी स्थिति भारतीय राजनीति में अपरिहार्य बनाना चाहती है।

कुछ लोग ऐसे हैं जो “गजवा ए हिन्द” को साकार करने के मार्ग में इस कानून को बाधक मानते हैं और हर हालत में इसे नाकाम करने पर आमादा है। मुस्लिम समाज का एक धरा इसलिए भी नाराज है कि वर्तमान सरकार के समय उनके इच्छा के विरुद्ध तीनतलाक कानून बना, धारा ३७० की समाप्ति हुई तथा बाबरी मस्जिद विवाद का निर्णय हिन्दुओं के पक्ष में आया। इससे यह वर्ग बेहद नाराज चल रहे थे और मौका मिलने पर सरकार से बदला लेने के लिए तैयार थे। यही कारण है कि नागरिकता कानून को एनआरसी से जोड़कर इसका विरोध किया जा रहा है, जो थमने का नाम नहीं ले रहा है।

ज्ञात हो कि नागरिकता कानून एक बहुप्रतीक्षित एवं संवैधानिक है। जिसकी मांग विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के द्वारा २००३ में रखी गई थी।लेकिन आज कांग्रेस की विवशता देखिए जो इसे काला कानून की संज्ञा दे रही है। आज देश अजीब दोराहे पर खड़ा है।लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाई जा रही है। राष्ट्रीय एवं सार्वजनिक सम्पत्ति को चुन-चुनकर निशाना बनाया जा रहा है। जिस निष्ठुरता एवं बेदर्दी से राष्ट्रीय सम्पत्ति को नष्ट किया जा रहा है और आग के हवाले किया जा रहा है, वह बेहद चिंतनीय है।

क्या भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था दोषपूर्ण है?
क्या २० से ३० प्रतिशत लोग पूरी व्यवस्था को अपहृत करना चाहती है?

हम सबको ऐसे वक्त में और संवेदनशील होकर सोचने की आवश्यकता है। उपरोक्त लेख कोसी की आस टीम को भारत सरकार के रेल मंत्रालय में कार्यरत प्रतापगंज, सुपौल के “विजेन्द्र जी” ने भेजा है।
(यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)

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