1968, में डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह जब बर्कले में थे और उनके मित्र ने जब पत्र भेजा और उस पत्र का जबाब देने में जब उन्हें कुछ वक्त लग गया तो कितनी शालीनता से उन्होंने जबाब दिया उन्हीं के शब्दों में पढ़ते हैं-
बर्कले
ता॰ 31-10-68
प्रिय राम प्रसाद,
तुम्हारे पत्र का जवाब देने में बहुत देर की है मैंने, इसके लिए क्षमा करना। तुम्हारी परीक्षा तो बहुत अच्छी गई ही होगी तब भी लिखना की परीक्षा कैसी गई। हिंदी में पत्र पाकर प्रसन्नता हुई कोई असुविधा नहीं हुई।
अब मेरा यहाँ पर चौथा साल है। मेरी प्रगति अच्छी रही है। वहाँ और यहाँ के जनसाधारण के जीवन में काफी फर्क है। लेकिन असली फर्क पैसे का है और पैसे के प्रति विचार का है। यहाँ के मध्यमवर्गीय परिवार धनी हैं। जरूरत की चीजें हैं उनके पास और अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान देते हैं। संयुक्त परिवार शायद ही हों।
भारत के विषय में यहाँ के अधिकतर लोग कुछ नहीं सोचते। भारत यदि धनी और ताकतवर देश होता तो बहुत सोचते। तब भी कुछ लोग हैं जो भारत के विषय में बहुत सोचते हैं और अपने देश से सहानुभूति रखते हैं। यहाँ की आम जनता भारतीय जनता से ज्यादा संपन्न है और कई दृष्टियों से ज्यादा सुखी है किंतु कुछ ख्याल से कम सुखी हैं।
जिस व्यक्ति के हृदय में देशप्रेम जोर नहीं मारता और जिसे यहाँ की आराम और विलास की वस्तुओं के सेवन का अभ्यास हो जाता है वह देश लौटने को नहीं सोचता। कुछ व्यक्ति इस कारण से भी देश नहीं लौटते कि देश में अच्छी संस्थाएं नहीं हैं जहाँ पर समझदार व्यक्ति बातचीत करने को मिलेंगे, जहाँ पर जरूरत से ज्यादा राजनीति नहीं चलती होगी और जहाँ पर पुस्तक और जर्नल्स मिलेंगी। मैं तो देश अवश्य लौटूँगा लेकिन कुछ काल बाद। बीच में नेतरहाट स्कूल को कुछ प्रतिभाशाली छात्र उत्पन्न करने चाहिए जो भविष्य के गणितज्ञ और वैज्ञानिक बन सके। लौट कर आने पर खोज करने और पढ़ाने-लिखाने का विचार है। मैंने अपनी थीसिस लिख रखी है फंक्शनल एनालिसिस में। अब जियोमेट्री में भी खोज कर रहा हूँ। आने वाले स्प्रिंग में डिग्री मिल जाएगी।
तुम्हारा
वशिष्ठ
(बर्कले ता॰ 31-10-68 को डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह द्वारा अपने मित्र राम प्रसाद को भेजे पत्र की मूल प्रति संलग्न है, जरूर देखें)