चंद्रप्रभा सीरीज की दूसरी कड़ी, दिव्या त्रिवेदी की जुबानी

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चंद्रप्रभा 2

कहती हैं सूर्य रश्मियां, चंद्रप्रभा हुई मैं।
मेरे चंद्र! तुम्हारे प्रेम को मैंने,
अपने कण-कण में समाहित कर लिया है।
तुम ओर- छोर रहते हो मुझसे,
पर, सदैव मेरे साथ समान गति से गतिमान हो।
अधरों से मौन रह कर भी चंद्र,
तुम मुझसे सब कुछ कह जाते हो।
चंद्र! तुम्हारा प्रेम भी प्रगाढ़ है सूर्य रश्मियां से,
पर इस प्रेम को अपने हृदय स्पंदन में,
तुम मस्तिष्क की चेतना से मौन कर देते हो।

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अपनी पुकार पहुंचने नहीं देते,
सूर्य रश्मियों तक।
प्रेम विवश, हां प्रेम विवश,
सूर्य रश्मियां स्वयं ही दौड़ पड़ती हैं,
तुम्हारी तरफ़ अपने सूक्ष्म रूप में।

उनके सूक्ष्म स्पर्श से तुम्हारा रोम-रोम,
आह्लादित हो प्रकाशमान हो उठता है।
पर चंद्र! उनके सूक्ष्म रूप को भी तुम,
अस्वीकार कर परावर्तित कर देते हो,
और तुम्हारी अस्वीकृति पाकर सूर्य रश्मियां,
चंद्रप्रभा का स्वरूप ले बिखर जाती हैं।
फिर बिखरकर कहती हैं चंद्रप्रभा।
देखो न चंद्र! भाग्यविधाता का लेख,
मेरे दोनों ही रूप में,
मेरे भाग्य में क्या लिखा है उसने,
केवल बिखराव!
सदैव व्याकुल विह्वल सा भटकाव।

मेरे हृदय के स्पंदन में,
जागृत मेरे कण- कण में,
मुझमें ही है रच बस कर,
जो नेह बंधा तेरे बंधन में,

कहां पूर्ण थी, अपूर्ण हुई मैं?
बिखरी ही थी पुनः बिखर गई मैं।
कण- कण में धर प्रेम तुम्हारा,
सूर्य रश्मि से चंद्रप्रभा हुई मैं।
तुम्हारी चंद्रप्रभा चंद्र!
तुम्हारी चंद्रप्रभा।

श्रीमती दिव्या त्रिवेदी, जो पूर्णियाँ से ताल्लुकात रखतीं हैं, ने चंद्रप्रभा सीरीज की दूसरी कड़ी में उपर्युक्त शब्दों को पंक्तियों में पिरोकर “कोशी की आस” को प्रेषित किया है। आपको बताते चलें कि श्रीमती त्रिवेदी की कई रचनायें पूर्व में भी प्रकाशित हो चुकी है।

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