चंद्रप्रभा

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तुम वसुंधरा के हो ना चन्द्र,
इसीलिए अद्वितीय हो तुम।
वसुंधरा के एक खंड से,
जब तुम ओझल होते हो,
उसी क्षण चन्द्र तुम, उसी क्षण,
उसके दूसरे खंड पर,
पूर्ण आलोकित रहते हो।।

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सूर्य रश्मियां तुम्हें कभी,
ओझल नहीं होने देती हैं।
थामे रहती हैं तुम्हें, एक हाथ से
सदैव।।

ये सूर्य रश्मियां जो हैं ना चन्द्र,
तुमसे खेलने नहीं आती हैं।
ये तुम्हारे पास आती हैं,
तुम्हारी शीतलता पाने के लिए,
सूर्य के तेज से तप्त हुई,
आती हैं तुम्हारी छाया प्राप्त करने,
तुम्हारे पास ही क्यूं?

क्यूंकि तुम उन्हें उनके स्वरूप में,
स्वीकारते हो, हृदय पर अंकित कर,
सूर्य रश्मियों को,
स्वयंप्रभा बना लेते हो।
उनका ताप सहन करते हो,
हृदय पर छाले लिए तुम चन्द्र,
तप्त से उन्हें शीतल बनाते हो।
तुम केवल नक्षत्रों से शापित हो।
सूर्य रश्मियां समस्त जीव से।
तुमसे कहीं बड़ा है इनका शाप।
जीवों को कई बार ये रश्मियां,
दिव्य नहीं तप्त लगती हैं।
सताती हैं उन्हें, जलाती हैं।
और यूं शापित हो जाती हैं।
तब चन्द्र, सूर्य रश्मियां आती हैं।
तुम्हारे पास तप्त से शीत होने।
सूर्य रश्मियां जो अप्रिय लगती हैं।
चंद्रप्रभा बन जगप्रिया हो जाती हैं।।

सूर्य रश्मियां तुमसे,
खेलने नहीं आतीं चन्द्र।
ये तो तुम्हारा सन्निध्य प्राप्त कर,
अपने श्राप से मुक्त होने आती हैं।
सूर्य में भस्म अपने अस्तित्व को,
तुम में समाहित हो कर,
अमर कर लेती हैं ये सूर्य रश्मियां।
सूर्य के लिए, ये सूर्य रश्मियां हैं,
तुम्हारे लिए, तुम्हारी चंद्रप्रभा।

चन्द्र,

ले कर सूर्य रश्मियां तुम,
स्वयंप्रभा बिखेरते हो,
माना चन्द्र तुम दुर्लभ हो, पर
नयन स्वप्न से पलते हो।
तुम्हारी चंद्रप्रभा, चन्द्र।।

श्रीमती दिव्या त्रिवेदी, जो पूर्णियाँ से ताल्लुकात रखतीं हैं, ने उपर्युक्त शब्दों को पंक्तियों में पिरोकर “कोशी की आस” को प्रेषित किया है। आपको बताते चलें कि श्रीमती त्रिवेदी की कई रचनायें पूर्व में भी प्रकाशित हो चुकी है।

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