दीया और आपदा

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यह तो सर्व विदित है कि
दिए से ना तो विषाणु भागेगा!
ना जरेगा!
ना मरेगा!

किन्तु इतना तो अवश्य है कि
इसके ताप से
वो पूर्वाग्रह अवश्य पिघल जाएगा
जिसमे हम सब
अदृश्य रूप मे
तिल तिल प्रतिपल जलते रहते हैं!

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हो सकता है कि
दिए की लौ
उस लोभ लोलुपता को
जलाने मे मे सक्षम हो जाए
जिसमें हम गटक गए हैं
छोटे बड़े कुएँ तलाब
और नदियों को
काट दिए जंगल सारे
प्रकृति का जो बालात्कार किया है
उस अक्षम्य पाप का प्रायश्चित्त तो
कर ही सकते हैं ना
दिए जलाकर!

बड़ी बड़़ी बातों को
अगर दर किनार कर भी दिया जाए तो
क्या हमे ?
इस घोर वैश्विक विपदा मे
एक साथ खड़े नहीं होना चाहिए!
सुख मे तो कभी हुए नहीं
चलो दुःख मे ही सही।

वो जो ना जाने कबसे
अपने बंधु बांधव को
छोड़ छाड़ कर डटें हुए हैं
और कब तक डटे रहना पड़े?
इसका उत्तर भी
आज ब्रह्मांड मे किसी के पास नहीं है।
तो क्या एक आशा का दीपक?
महज कुछ पलों के लिए
समर्पित कर नहीं सकते क्या?
और कितना नीचे गिरेंगे हम ?
स्वार्थी मानव!

मृत्यु प्रलय बनकर
आज दरवाजे पर खड़ी है
फिर भी हम सब मूढमति
बस !विरोध के लिए विरोध करेंगे।

फिर तो दिया बहुत जरूरी हैं
अंतरात्मा के घोर तमस के लिए

दिए से ना तो विषाणु भागेगा!
ना जरेगा!
ना मरेगा!

उक्त पंक्तियाँ भेलाही “सुपौल” की “श्रीमती कुमुद अनुन्जया” जो केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक के पद पर कार्यरत हैं, के द्वारा कोशी की आस टीम को भेजी गई है।

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