गांव
गांव सचमुच अंतिम पड़ाव होता है सबका,
खुशी हो या गम का टूटा पहाड़, गांव में ही सुकून आता है,
एक समरस समाज जहाँ दूर के चच्चा और बाबा भी सबको बराबर डांट देते थे,
पर बदल गया है वो सब।
संस्कार और अनुशासन की तहजीब छूटती जा रही है अब,
अपनेपन की खुशबू खो गई है अंधी आधुनिकता की इस दौड़ में,
सोशल मीडिया ने सोशल डिस्टेंसिंग बढ़ा दी है।
समाज के संस्कारी ताने बाने बिखड़ते जा रहे हैं,
राजनीति और कूटनीति की गंधनीति फैल रही है।
चुनावी द्वेष में गांव भी तिनके सा बिखड़ता जा रहा है
समरसता और सामंजस्य उजड़ता जा रहा है।
विकास की बातें कहने सुनने में ही अच्छी लगती है सबको,
पर विकास के हर काम में बाधाओं का जाल बिछाया जाता है।
हर कदम पर बँटा जा रहा है हमारा गाँव
पर क्या बँट बँट कर हो पायेगा किसी का भी विकास?
पर फिक्र किसे है, सब लगाए हैं अपने अपने दांव
केंकड़े की तरह हर ऊपर चढनेवालों की खींच लेते हैं पांव।
(यह हर गाँव और समाज की कविता है)
यादवेन्द्र सिंह