ये जो सड़कों पर रेंग रहे हैं
कौन हैं ये लोग ?
यह जानना जरूरी नहीं है,
क्योंकि यह बात नई नहीं है!
यह तब भी ऐसे ही सड़कों पर थे,
जब तुगलक ने अपनी तुगलकी फरमान से,
रातोंरात राजधानी बदल डाली थी।
यह तब भी ऐसे ही थे
लुटे पीटे सड़कों पर
जब सन सैंतालिस मे
सत्ता की लोलुपता से
विभाजन की विभिषिका का बज्रपात हुआ था।
आज भी तो कुछ वैसा ही है।
बस सत्ता और फरमान अलग है
तो इन रेंगने वालों की पहचान
आज कठिन नहीं है।
आज वो लोग कहाँ हैं
जो चीख -चीख कर कहते हैं कि,
हिन्दुस्तान किसी के बाप का नहीं!
तो जिनके बाप का है,
क्यों छोड़ दिए हो अपने कुटुम्ब को
सड़को पर यूं बेबस रेंगने को?
कहाँ गए गरीब गुरबा के रहनुमा,
समता समानता की बातें करने वाले,
वो आजादी लेनेवाले
क्या उन्हें?
ये आजाद देश के
बेघर कैदी नहीं दिख रहे?
आज वो कहाँ हैं जो
भंडारे लंगर खोल दिया करते थे
संविधान की रक्षा मे,
क्या आज उन्हें हम भारत के लोग
नहीं दिख रहे?
आज वो कहाँ हैं
जो स्वयं को बलि का वंशज
और दानवीर कर्ण का उत्तराधिकारी
बतला कर मुफ्त मुफ्त की
सत्ता का शह और मात खेला करते थे
सत्ता मिलते ही
जनता को भेज दिया सड़कों पर
आत्मा मर गई की या कभी थी ही नहीं?
आज कहाँ है वो लोग?
जो कांवड़ियों पर
पुष्प वर्षा किया करते थे?
क्या उन्हें भूखे बेबस लाचार
कीटनाशकों मे धुले हुए
सडकों पर रेंगते
मुर्दा कीड़ों जैसे
जिन्दा लोग दिखाई नहीं दे रहे??
कहाँ गए सब लोग?
कहाँ गए सब अंधे बहरे मुर्दा लोग?
उक्त पंक्तियाँ भेलाही “सुपौल” की “श्रीमती कुमुद अनुन्जया” जो केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक के पद पर कार्यरत हैं, के द्वारा कोशी की आस टीम को भेजी गई है।