निर्भया तुम कभी माफ ना करना
नहीं तेरे लिए यहां कोई शर्मिंदा हैं।
सब मतलब की रोटी सेंक रहे बस
तभी तो तेरे दोषी दरिंदे जिंदा हैं।
बलात्कारी सारी कानून व्यवस्था
दोषी ये कोर्ट वकील जज नेता हैं।
मिला दयाहीन को अधिकार क्यों
जो वो याचिका दया की लगाते हैं।
फुटबॉल समान ये न्याय प्रणाली
वो बारी – बारी से उछाले जाते हैं।
थक गई है तारीख भी अब तो
स्वर्णिम इतिहास बना ना पाती है।
देखो हुई है लहूलुहान विधि भी
ये भी बलात्कारी से लूटी जाती है।
शर्म अब नहीं आती किसी को
बस रोज तारीख बढ़ाते जाते हैं।
उन सब ने खाई थी एक निर्भया
ये कितनी निर्भया खाए जाते हैं।
निर्भया तुम कभी माफ ना करना
नहीं तेरे लिए यहां कोई शर्मिंदा हैं।
सब मतलब की रोटी सेंक रहे बस
तभी तो तेरे दोषी दरिंदे जिंदा हैं।
श्रीमती दिव्या त्रिवेदी, जो पूर्णियाँ से ताल्लुकात रखतीं हैं, ने उपर्युक्त शब्दों को पंक्तियों में पिरोकर “कोशी की आस” को प्रेषित किया है। आपको बताते चलें कि श्रीमती त्रिवेदी की कई रचनायें पूर्व में प्रकाशित हो चुकी है।