बचपन में प्रेमचंद रचित “ईदगाह” की कहानी हम-सबने पढ़ी है, उस कहानी के मुख्य किरदार “हामिद” अब भी हमारे ज़ेहन में जीवंत है।
रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद “ईद” आयी है। गाँव में कितनी हल-चल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। लड़के सबसे ज़्यादा प्रसन्न हैं। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर-का-धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना ख़ज़ाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,बारह, उसके पास पूरे बारह सौ हैं। मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह सौ हैं। और सबसे ज़्यादा प्रसन्न है “हामिद”। वह उन्नीस-बीस साल का भोली सी सूरत का दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप कुछ साल पहले सीरिया भाग गया था, ISIS के लिए लड़ने और वहाँ वह लड़ता हुआ मारा गया। माँ ने दूसरा निकाह कर लिया, बच्चे-पे-बच्चे जनती हुयी जाने क्यों पीली होती गयी और एक दिन बच्चे को जन्म देते हुए ही उसकी मौत हो जाती है। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी “अमीना” के पास रहता है, उसकी गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है।
गाँव के ही एक मौलवी साहब “जाकिर……” ने उसे बताया कि उसके अब्बाजान जन्नत अता फरमाये गए हैं, शराब के दरियाओं में डुबकी लगाते हैं, अलग-अलग फ्लेवर वाले झरनों से शराब लेकर पीते हैं, काजू, मेवा, खजूर खाते हैं और मज़े करते हैं।
अम्मीजान जहन्नुम में डाल दी गयी है, वहाँ उनके लिए न शराब है, न कबाब और न कोई …, बस दोजख की आग में सेंकी जा रही हैं भुट्टे की माफिक…….. खैर हामिद प्रसन्न है।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है— ‘तुम डरना नहीं अम्माँ, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।’ हज़ार-बारह सौ हामिद की जेब में, हज़ार-पाँच सौ अमीना के बटुवे में। साल भर का त्यौहार है। बच्चा खुश रहे, उनकी तक़दीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जायँगे। गाँव से हुजूम मेला चला और लड़कों के साथ ‘हामिद’ भी जा रहा था। कभी सबके-सब दौड़कर आगे निकल जाते, फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते। सहसा “ईदगाह” नज़र आयी।
सबने ईदगाह पहुँच कर वुज़ू किया और नमाज़ अता की और एक-दूसरे को गले लगाकर ईद की मुबारकवाद दी। तब मोबाइलों, कपड़ों और खाने-पीने की दुकानों पर धावा होता है। सब लड़के हर दूकान पर जाकर मोलभाव कर रहे हैं, अपनी-अपनी पसंद की चीजें खरीद रहे हैं किन्तु हामिद नहीं, हामिद लड़कों की टोली से गायब है, दो-चार घण्टे के बाद अच्छे से खा-पीकर, कपडे, मोबाइल खरीदकर सब वापस चलने को तैयार है, हामिद भी आ चुका है, सब पश्चिम में गिरते सूरज की चाल को समझकर गाँव लौटने लगे हैं…….
दरवाजे पर हामिद की आवाज़ सुनते ही अमीना दौड़ी और उसे गले से लगाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में एक बोरा देखकर वह चौंकी…..
‘यह बोरा, कहाँ से लिया?’
‘मैंने मोल लिया है।’
‘कै रूपये का?’
‘तीन हज़ार दिये।’
‘क्या है इसमें?’
हामिद ने बोरा जमीन पर खाली कर दिया….. “अमोनियम नाइट्राइट, बारूद, पोटाश, सल्फर डाई ऑक्साइड, पुरानी जैकेट, कुछ गज मीटर लम्बा कपड़ा, आठ-दस हाथ सूतली, लम्बी नोकदार पीतल की कीलें, कांच के टुकड़े” ….. अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, ये कबाड़! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली, जो यह कबाड़ उठा लाया।
हामिद ने गर्व के भाव से कहा— “अम्मा मैं काफिरों को मारूँगा, जिहाद पे जाऊँगा, अल्लाह के रास्ते, मजहब की खातिर कुर्बान होऊंगा, बम बनाऊगा, सुसाइड जैकेट पे फिट करूँगा, कुछ पेट से भी बांधुगा और किसी एअरपोर्ट, शौपिंग मॉल, मन्दिर, स्कूल में अलाह-हू-अकबर चिल्लाते हुए खुद को उड़ा लूँगा और काफिरों को मार कर अब्बा की तरह जन्नत जाऊँगा…”
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, बच्चे में दीन के लिए कितना त्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है! दूसरों को नया मोबाइल लेते, पिज़्ज़ा बर्गर खाते, मिठाइयाँ खाते, ब्रांडेड कपड़े खरीदते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? लेकिन मजहब पे सब कुर्बान कर दिया उसने…. वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी, अल्लाह ताला से उसके लिए जन्नत में आला मुकाम देने की गुजारिश करती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य खूब समझता…..!
क्योंकि वह जन्नत जाने, शराब की नदियों में डुबकी लगाने और अलग-अलग फ्लेवर की शराब पीने आदि के लिए बेकरार था।
यह एक स्वतंत्र लेखक के निजी विचार है।
(“कोसी की आस” का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं हैं)।
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